हीनभावना कर रही है हिंदी की दुर्दशा
Posted by Isht Deo Sankrityaayan on September 6, 2007
सत्येन्द्र प्रताप
आजकल अखबारनवीसों की ये सोच बन गई है कि सभी लोग अंग्रेजी ही जानते हैं, हिंदी के हर शब्द कठिन होते हैं और वे आम लोगों की समझ से परे है. दिल्ली के हिंदी पत्रकारों में ये भावना सिर चढ़कर बोल रही है. हिंदी लिखने में वे हिंदी और अन्ग्रेज़ी की खिचड़ी तैयार करते हैं और हिंदी पाठकों को परोस देते हैं. नगर निगम को एम सी डी, झुग्गी झोपड़ी को जे जे घोटाले को स्कैम , और जाने क्या क्या.
यह सही है कि देश के ढाई िजलों में ही खड़ी बाली प्रचलित थी और वह भी दिल्ली के आसपास के इलाकों में. उससे आगे बढने पर कौरवी, ब्रज,अवधी, भोजपुरी, मैथिली सहित कोस कोस पर बानी और पानी बदलता रहता है.
लम्बी कोशिश के बाद भारतेंदु बाबू, मुंशी प्रेमचंद,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद जैसे गैर हिंदी भाषियों ने हिंदी को नया आयाम दिया और उम्मीद थी कि पूरा देश उसे स्वीकार कर लेगा. जब भाषाविद् कहते थे कि हिंदी के पास शब्द नहीं है, कोई निबंध नहीं है , उन दिनों आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने क्लिष्ट निबंध लिखे, जयशंकर प्रसाद ने उद्देश्यपरक कविताएं लिखीं, निराला ने राम की शक्ति पूजा जैसी कविता लिखी, आज अखबार के संपादक शिवप्रसाद गुप्त के नेत्रित्व में काम करने वाली टीम ने नये शब्द ढूंढे, प्रेसीडेंट के लिए राष्ट्रपति शब्द का प्रयोग उनमे से एक है. अगर हिंदी के पत्रकार , उर्दू सहित अन्य देशी भाषाओं का प्रयोग कर हिंदी को आसान बनाने की कोशिश करते तो बात कुछ समझ में आने वाली थी, लेकिन अंग्रेजी का प्रयोग कर हिंदी को आसान बनाने का तरीका कहीं से गले नहीं उतरता. एक बात जरूर है कि स्वतंत्रता के बाद भी शासकों की भाषा रही अंग्रेजी को आम भारतीयों में जो सीखने की ललक है, उसे जरूर भुनाया जा रहा है. डेढ़ सौ साल की लंबी कोशिश के बाद हिंदी, एक संपन्न भाषा के रूप में िबकसित हो सकी है लेिकन अब इसी की कमाई खाने वाले हिंदी के पत्रकार इसे नष्ट करने की कोिशश में लगे हैं। आने वाले दिनों में अखबार का पंजीकरण करने वाली संस्था, किसी अखबार का हिंदी भाषा में पंजीकरण भी नहीं करेगी.
हिंदी भाषा के पत्रकारों के लिए राष्ट्रपति शब्द वेरी टिपिकल एन्ड हार्ड है, इसके प्लेस पर वन्स अगेन प्रेसीडेंट लिखना स्टार्ट कर दें, हिंदी के रीडर्स को सुविधा होगी.
Gyandutt Pandey said
साहेब; हिन्दी न पत्रकारों ने बनाई न शुद्धतावादी पण्डितों ने. आप परेशान न हों, पत्रकार इसे समाप्त भी न कर पायेंगे. चाहे वे रिमिक्स वाले पत्रकार हों या हिन्दी का पट्टा लिखाये!
Shastri JC Philip said
जिस तरह से हिन्दुस्तान की आजादी के लिये करोडों लोगों को लडना पडा था, उसी तरह अब हिन्दी के कल्याण के लिये भी एक देशव्यापी राजभाषा आंदोलन किये बिना हिन्दी को उसका स्थान नहीं मिलेगा — शास्त्री जे सी फिलिपमेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!
neeshoo said
आप की चिन्ता उचित है। आज के समय में सब मिश्रित है
अनूप शुक्ला said
अच्छा लेख है।
अनुनाद सिंह said
बहुत सही बिचार किया है.मेरे खयाल से न केवल हिन्दी के पत्रकार, वरन कमोबेश पूरा देश हीन भावना से ग्रसित है.
Shrish said
हिन्दी पत्रकारों ने तो भाषा का सत्यानाश करके रख दिया है। अब इस बारे क्या कहें, अखबार पढ़ने का मन ही नहीं करता।
satyendra... said
उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद । मैं हिन्दी भाषा में अन्य भाषा के शब्दों को डाले जाने के खिलाफ नहीं हूं। हिन्दी को उत्तर भारत से लेकर दछिण भारत तक कीसभी भाषाओं के शब्दों को स्वीकार करना चाहिए । अंग्रेजी के तमाम शब्द हमने स्वीकार किए,रेल— रेलवे स्टेशन , सब-वे आदि शब्द हमने ले लिए हैं। लेकिन हिन्दी शब्दों की कीमत पर अंग्रेजी को नहीं स्वीकार किया जा सकता । ऐसे तो हिन्दी के प्रचलित शब्द मर जाएंगे। दिल्ली की पत्रकारिता में नवभारत टाइम्स और िहन्दुस्तान जैसे अखबा घोटाला के लिए स्कैम, बड़ा के लिए हैवीवेट जैसे अंग्रेजी शब्द प्रयोग करने लगे हैं। इस प्रवृित्त का खुलकर विरोध होना चाहिए।आभार के साथ,सत्येन्द्र