भूक दहक और धुआं
Posted by Isht Deo Sankrityaayan on September 13, 2008
—मंथन
आज दिल की चिमनियों से, उठ रहा है इक धुआं
भूख से दहक रहा है, मुफलिसों का कारवां
खेत की खुशहालियां तो, साहुकार ले गए
होरी और धनिया के लिये, है सिर्फ़ इम्तिहाँ
उन हवेलियों की ज़ुल्म ढाती , ऊँची गुम्बदें
आबरू अपनी लुटाके , जा रही शोषित वहां
हुक्मरान हमसे कह रहे हैं, चैन से रहो
शर्त इतनी है की हमको , बंद रखनी है ज़बां
कौडिओं के मोल में ज़मीर, जिनके बिक गए
उनके वास्ते ज़मीन है , न और आसमां
आओ मुट्ठी बांधकर कसम, उठाये आज हम
फूँक डाले ज़ुल्म को , बनाये इक नया जहाँ
(manthan ji ki kuch panktiya mujhe achi lagi, aapake samane rakh raha hun)
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प्रदीप मानोरिया said
जबरदस्त कविता फुर्सत निकाल कर पुन: मेरे ब्लॉग पर दस्तक दें