किस डाक्टर ने कहा है सोच सोच कर लिखो
Posted by Isht Deo Sankrityaayan on March 17, 2009
किस डाक्टर ने कहा है सोच सोच कर लिखो…जिस तरह से लाइफ का कोई ग्रामर नहीं है, उसी तरह से लिखने का कोई ग्रामर नहीं है…पिछले 12 साल से कुत्ते की तरह दूसरों के इशारे पर कलम चलाता रहा, दूसरों के लिखे को एडिट करता रहा…हजारों बार एसे विचार दिमाग में कौंधे, जिन्हें पर उसी वक्त खूब सोचने की जरूरत महसूस करता रहा, और फिर समय की रेलम पेल में उड़ गये…ना बाबा अब सोच सोच कर मैं लिखना वाला नहीं है..बस दिमाग में जो चलता जाएगा वो लिखता जाऊंगा..
.मेरा दागिस्तान…इसी किताब में एक कहानी थी…एडिट करने वाले संपादक की…उसके पास जो कुछ भी जाता था, वह उसे एडिट कर देता था, उसे इसकी खुजली थी। यहां तक की कवियों की कवितायों में भी अपनी कलम घूसेड़ देता था…एक बार एक सनकी कवि से उसका पाला पड़ गया, उसकी कविता को उस संपादक ने एडिट कर दिया था। सनकी कवि ने कुर्सी समेत उसे उठा कर बाहर फेंक दिया…
मेरा दागिस्तान में बहुत सारे गीत हैं…और रूस का लोक जीवन है। यह किताब सोवियत संघ के समय के किसी रूसी लेखक ने लिखी थी…पढ़ते समय अच्छा लगा था…मुझे याद है एक बार मेरे हाथ में आने के बाद मैं इससे तब तक चिपका रहा था जब तक इसे पूरी तरह से पी नहीं गया…लगातार तीन दिन तक में यह किताब मेरे हाथ में रही थी.
कालेज के दिनों में कम कीतम होने की वजह से रूसी किताबें सहजता से पहुंच में थी…इसलिये उन्हें खूब पढ़ता था…गोर्की ने भी एक संपादक की कहानी लिखी थी, जो धांसू संपादकीय लिखने के लिए अपनी एड़ी चोटी की जोड़ लगा देता था, और हमेशा इस तरह से घूमता था मानों उसके सिर पर ही सारी दुनिया का भार टिका हुआ है। टाइपिंग पर काम करने वाले एक मजदूर ने एक बार खुंदक में आकर उसका संपाकीय में से कुछ शब्द ही बदल दिये थे,..फिर तो संपादक ने भौचाल खड़ा कर दिया था….भला हो तकनीक क्रांति का, भला हो ब्लाग की दुनिया का जिसने संपादकों से मुक्ति दिला दी…बस अब लिखो और चेप दो…मामला खत्म। जिनको पढ़ना है, पढ़े, नहीं पढ़ना है, चादर तानकर सोये…या फिल्म देखे…या फिर जो मन में आये करे…अपना तो दिमाग का कूड़ा तो निकल गया…
अब मिस मालती याद रही है, गोदान वाली मिस मालती, जिस पर फिलासफर टाइप के डाक्टर साहेब फिदा हो गये थे…शुरु शुरु में डाक्टर साहेब ने ज्यादा भाव नहीं दिया था, उन्हें लगा था कि विलायती टाइप का कोई देशी माल है…माल इसलिये कि कालेज दिनों में सारे यार दोस्त लड़कियों को माल ही कहते थे, हालांकि इस शब्द को लेकर में हमेशा कन्फ्यूज रहा हूं, क्योंकि उसी दौरान मेरे मुहल्ले के खटाल में गाय, भैंस रखने वाले ग्वाले अपने मवेशियों को माल ही कहा करते थे…उनके साथ लिट्टी और चोखा खाने में खूब मजा आता था…खैर, डाक्टर साहेब को धीरे-धीरे अहसास हो गया कि मिस मालती ऊंची चीज है, एक आर्दशवादी टाइप के दिखने वाले संपादक को अपने रूप जाल में फंसा कर दारू पीलाकर धूत कर देती है। वह बहुत ही अकड़ू संपादक था, एड बटोरने के लिए जमींदारों को अपने तरीके से हैंडिल करता था….प्यार का फंडा बताते हुये डाक्टर साहेब मिस मालती से कहते हैं, प्यार एक शेर की तरह है जो अपने शिकार पर किसी की नजर बर्दाश्त नहीं करता है…हाय, मालती ने क्या जवाब दिया था…ना बाबा ना मुझे प्यार नहीं करना, मैं तो समझती थी प्यार गाय है…
इधर चैट बाक्स पर चैट कर रहा हूं और लिख भी रहा हूं…लिखने का है कोई ग्रामर…? लोग मास्टर पीस कैसे लिख मारते हैं…तोलोस्तोव को युद्ध और शांति लिखने में छह साल लगे थे, 18 ड्राफ्टिंग की थी…यह किताब तो बहुत शानदार है, लेकिन तोलोस्तोव ने इसमें डंडी मारी की है, नेपोलियन की महानता को मूर्खता साबित करने पर तूला हुआ है…और रूसी जनता की जीजिविषा को मजबूती से चित्रित किया है…यदि रूस को सही तरीके से देखना है तो गोर्की और तोलोस्तोव को एक साथ पढिये….तोलस्तोव बड़े घरों की बालकनी और बाल डांस से लेकर डिप्लौमैटिक और सैनिक रूस को बहुत ही बेहतर तरीके से उकेरता है, तो गोर्की गंदी बस्तियों के दमदार चरित्रों को दिखाता है….वैसे फ्रांसीसी लिटरेचर भी मस्त है, वहां पर बालजाक मिलेगा…उसका किसान पढ़ा था, क्या लिखता है ! आपके सामने भारत के किसान नहीं घूमने लगे तो आपका जूता और मेरा सिर…भाई लोग पढ़ने के बाद अच्छा न लगे तो जरा धीरे मारना, और यदि मजा आये तो आप लोग उन किताबों के बारे में बताना जिनका असर आज तक आप पर किसी न किसी रूप में है…आज इतना ही, दिमाग कुछ हल्का हो गया है, अब एक मेल भी लिखना है…मेल मजेदार चीज है….मेल की अनोखी दुनिया पर एक नोवेल लिख चुका हूं…कोई पब्लिसर हो तो जरूर बताये, जो अच्छी खासी रकम दे…भाई लिख लिखकर अमीर होना है…जीबी शा ने अपनी लेखनी से दो साल में मात्र 50 रुपये कमाये थे…अभी तक उनक भी रिकार्ड नहीं तोड़ पाया हूं…कोई गल नहीं…सबसे बड़ी बात है अपने तरीके से लिखना, और वो कर रहा हूं…जय गणेश,जय गणेश, जय गणेश देवा….
अनिल कान्त : said
aapne bahut sahi tareeke se apne man ke khayalat rakhe
आलोक सिंह said
आलोक जी बस यही कहूँगा जय गणेश,जय गणेश, जय गणेश देवा….
संगीता पुरी said
ग्रामर तो बाद में बनता है … भावनाएं और विचार मन में पहले आते हैं … अच्छा किया गणेश जी का नाम लेकर शुरू हो गए … सुदर लिखा है।
राज भाटिय़ा said
…पिछले 12 साल से कुत्ते की तरह दूसरों के इशारे पर कलम चलाता रहा… राम राम भाई मुझे भी बता दो ना कुत्ता केसे लिख सकता है ताकि मै अपने प्यारे हेरी को अपनी पोस्ट मै सब से मुश्किल काम टिपण्णियो का सोंप दुं, फ़िर देखो सब की शिकायत दुर, अभी वो सारा दिन सोया रहता है कुत्ते की तरह से, कभी कभी मन किया तो थोडा बहुत भोंक लिया.आप का लेख बहुत प्यारा लगा, अगर सोच सोच कर लिखो गे तो लोग भी सोच सोच कर पढे गे..धन्यवाद
इष्ट देव सांकृत्यायन said
आपने लिखा तो बहुत बढिया. असल में कभी-कभी विषय भी बन्धन बन जाता है. वैसे भी साहित्य की सबसे प्यारी समझी जाने वाली विधा कविता आम तौर पर तयशुदा विषय में कहाँ बंधती है. वह हमारी-आपकी तरह आवारा बने रहने में फ़ख़्र महसूस करती है. लिहाजा विषय के बन्धन को कभी-कभी तोड़ा जाना चाहिए, पर हाँ इस बात का ख़याल रखते हुए कि वह छन्द का बन्धन तोड़ने के नाम पर बेतुकी कविता न बन जाए.और हाँ, मेरा दाग़िस्तान रसूल हम्ज़ातोव की रचना है. रसूल रूस के नहीं दाग़िस्तान के रचनाकार थे. दाग़िस्तान सोवियत संघ का एक प्रांत था. उनकी भाषा भी रूसी नहीं, अवार थी. अब शायद मुश्किल से 5 लाख लोग भी अवार नहीं बोलते, पर अपनी भाषा,मिट्टी और संस्कृति के प्रति रसूल का बेइंतहां प्यार उनकी इस कृति में देखा जा सकता है. हमें तो वह और भी प्यारे इसलिए लगते हैं कि जैसा कि इस कृति से ज़ाहिर होता है रसूल भी अपनी ही तरह के मस्त और आवारा तबीयत के आदमी थे. नियमों में बंधने की ग़लती उन्होने कभी नहीं की.
ashish said
अच्छा इतना लगा कि तारीफ करना चाहता हूं पर तारीफ के तौर पर पोस्ट के रुप में लिखने की बाध्यता से आजादी भी….सो इस बक्से की हद में आज सिर्फ आनंदित होते हुए ये आज़ादी सेलेब्रेट करुंगा….इस जश्न ए आज़ादी के लिए इयत्ता को शुक्रिया… उम्मीद है यहां अगर कुछ लिखने से बचता है तो बगैर लिखे ही उसे पढ़ लिया जाएगा…