नेता और चेतना
Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 15, 2009
हमारे देश में चीज़ों के साथ मौसमों और मौसमों के साथ जुड़े कुछ धंधों का बड़ा घालमेल है. इससे भी ज़्यादा घालमेल कुछ ख़ास मौसमों के साथ जुड़ी कुछ ख़ास रस्मों का है. मसलन अब देखिए न! बसंत और ग्रीष्म के बीच आने वाला जो ये कुछ-कुछ नामालूम सा मौसम है, ये ऐसा मौसम होता है जब दिन में बेहिसाब तपिश होती है, शाम को चिपचिपाहट, रात में उमस और भोर में ठंड भी लगने लगती है. आंधी तो क़रीब-क़रीब अकसर ही आ जाती है और जब-तब बरसात भी हो जाती है. मौसम इतने रंग बदलता है इन दिनों में कि भारतीय राजनीति भी शर्मसार हो जाए. अब समझ में आया कि चुनाव कराने के लिए यही दिन अकसर क्यों चुने जाते हैं. मौसम भी अनुकूल, हालात भी अनुकूल और चरित्र भी अनुकूल. तीनों अनुकूलताएं मिल कर जैसी यूनिफॉर्मिटी का निर्माण करती हैं, नेताजी लोगों के लिए यह बहुत प्रेरक होता है.
मुश्किल ये है कि ग्लोबीकरण के इस दौर में चीज़ों का पब्लिकीकरण भी बड़ी तेज़ी से हो रहा है. इतनी तेज़ी से कि लोग ख़ुद भी निजी यानी अपने नहीं रह गए हैं. और भारतीय राजनेताओं का तो आप जानते ही हैं, स्विस बैंकों में पड़े धन को छोड़कर बाक़ी इनका कुछ भी निजी नहीं है. सों कलाएं भी इनकी निजी नहीं रह गई हैं. रंग बदलने की कला पहले तो इनसे गिरगिटों ने सीखी, फिर आम पब्लिक यानी जनसामान्य कहे जाने वाले स्त्री-पुरुषों ने भी सीख ली. तो अब वह हर चुनाव के बाद इनकी स्थिति बदल देती है.
इन्हीं दिनों में एक और चीज़ बहुत ज़्यादा होती है और वह है शादी. मुझे शादी भी चुनाव और इस मौसम के साथ इसलिए याद आ रही है, क्योंकि इस मामले में भी ऐसा ही घपला होता है अकसर. हमारे यहां पत्नी बनने के लिए तत्पर कन्या को जब वर पक्ष के लोग देखने जाते हैं तो इतनी शीलवान, गुणवान और सुसंस्कृत दिखाई देती है कि वोट मांगने आया नेता भी उसके सामने पानी भरने को विवश हो जाए. पर पत्नी बनने के तुरंत बाद ही उसके रूप में चन्द्रमुखी से सूरजमुखी और फिर ज्वालामुखी का जो परिवर्तन आता है…. शादीशुदा पाठक यह बात ख़ुद ही बेहतर जानते होंगे.
चुनावों और शादियों के इसी मौसम में कुछ धंधे बड़ी ज़ोर-शोर से चटकते हैं. इनमें एक तो है टेंट का, दूसरा हलवाइयों, तीसरा बैंडबाजे और चौथा पंडितों का. इनमें से पहले, दूसरे और तीसरे धंधे को अब एक जगह समेट लिया गया है. भारत से जाकर विदेशों में की जाने वाली डिज़ाइनर शादियों में तो चौथा धंधा भी समेटने की पूरी कोशिश चल रही है. पर इसमें आस्था और विश्वास का मामला बड़ा प्रबल है. पब गोइंग सुकन्याओं और मॉम-डैड की सोच को पूरी तरह आउटडेटेड मानने वाले सुवरों को भी मैंने ज्योतिषियों के चक्कर लगाते देखा है. इसलिए नहीं कि उनकी शादी कितने दिन चलेगी, यह जानने के लिए कि उन दोनों का भाग्य आपस में जुड़ कर कैसा चलेगा. पता नहीं क्यों, इस मामले में वे भी अपने खानदानी ज्योतिषी जी की ही बात मानते हैं.
तो अब समझदार लोग डिज़ाइनर पैकेजों में ज्योतिषी और पुरोहित जी को शामिल नहीं कराते. होटल समूह ज़बर्दस्ती शामिल कर दें तो उनका ख़र्च भले उठा लें, पर पंडित जी को वे ले अपनी ही ओर से जाते हैं. इसलिए पंडित जी लोगों की किल्लत इस मौसम में बड़ी भयंकर हो जाती है. ऐसी जैसे इधर दो-तीन साल से पेट्रोल-गैस की चल रही है. यह किल्लत केवल शादियों के नाते ही नहीं होती है, असल में इसकी एक वजह चुनाव भी हैं. अब देखिए, इतने बड़े लोकतंत्र में सरकारें भी तो तरह-तरह की हैं. देश से लेकर प्रदेश और शहर और कसबे और यहां तक कि गांव की भी अपनी सरकार होती है. हर सरकार के अपने तौर-तरीक़े होते हैं और वह है चुनाव.
ज़ाहिर है, अब जो चुनाव लड़ेगा उसे अपने भविष्य की चिंता तो होगी ही और जिसे भी भविष्य की चिंता होती है, भारतीय परंपरा के मुताबिक वह कुछ और करने के बजाय ज्योतिषियों के आगे हाथ फैलाता है. तो ज्योतिषियों की व्यस्तता और बढ़ जाती है. कई बार तो बाबा लोग इतने व्यस्त होते हैं कि कुंडली या हाथ देखे बिना ही स्टोन या पूजा-पाठ बता देते हैं. समझना मुश्किल हो जाता है कि मौसम में ये धंधा है कि धंधे में ही मौसम है.
अभी हाल ही में मैंने संगीता जी के ज्योतिष से रिलेटेड ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ा. उन्होंने कहा है कि ‘गत्यात्मक ज्योतिष को किसी राजनीतिक पार्टी की कुंडली पर विश्वास नहीं है.’ मेरा तो दिमाग़ यह पढ़ते ही चकरा गया. एं ये क्या मामला है भाई! क्या राजनीतिक पार्टियों की कुंडलियां भी राजनेताओं के चरित्र जैसी होती हैं? लेकिन अगला वाक्य थोड़ा दिलासा देने वाला था- ‘क्योंकि ग्रह का प्रभाव पड़ने के लिए जिस चेतना की आवश्यकता होती है, वह राजनीतिक पार्टियों में नहीं हो सकती.’ इसका मतलब यही हुआ न कि वह नहीं मानतीं कि राजनीतिक पार्टियों में चेतना होती है.
अगर वास्तव में ऐसा है, तब तो ये गड़बड़ बात है. भला बताइए, देश की सारी सियासी पार्टियां दावे यही करती हैं कि वे पूरे देश की जनता को केवल राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक और आर्थिक रूप से भी चेतनाशील बना रही हैं. बेचारी जनता ही न मानना चाहे तो बात दीगर है, वरना दावा तो कुछ पार्टियों का यह भी है कि वे भारत की जनता को आध्यात्मिक रूप से भी चेतनाशील या जागरूक बना रही हैं. अब यह सवाल उठ सकता है कि जो ख़ुद ही चेतनाशील नहीं है वह किसी और को भला चेतनाशील तो क्या बनाएगा! ज़ाहिर है, चेतनाशील बनाने के नाम पर यह लगातार पूरे देश को अचेत करने पर तुला हुए हैं और अचेत ही किए जा रहे हैं.
लेकिन संगीता जी यहीं ठहर नहीं जातीं, वह आगे बढ़ती हैं. क्योंकि उन्हें देश के राजनीतिक भविष्य का कुछ न कुछ विश्लेषण तो करना ही है, चाहे वह हो या न हो. असल बात ये है कि अगर न करें तो राजनीतिक चेले लोग जीने ही नहीं देंगे. और राजनीतिक चेलों को तो छोड़िए, सबसे पहले तो मीडिया वाले ही जीना दुश्वार कर दें ऐसे ज्योतिषियों का, जो चुनाव पर कोई भविष्यवाणी न करें. आख़िर हमारी रोज़ी-रोटी कैसे चलेगी जी! जनता जनार्दन तो आजकल कुछ बताती नहीं है. फिर कैसे पता लगाया जाए कि सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा और अगर ये पता न किया जाए तो अपने सुधी पाठकों को बताया कैसे क्या जाए?
जब उन्हें पकड़ा जाता है तब समझदार ज्योतिषी वैसे ही कुछ नए फार्मुले निकाल लेते हैं, जैसे संगीता जी ने निकाल लिए. मसलन ये कि – ‘इसलिए उनके नेताओं की कुंडली में हम देश का राजनीतिक भविष्य तलाश करते हैं.’ अब इसका मतलब तो यही हुआ न जी कि नेताओं के भीतर चेतना होती है? पता नहीं संगीता जी ने कुछ खोजबीन की या ऐसे ही मान ली मौसम वैज्ञानिकों की तरह नेताओं के भीतर भी चेतना या बोले तो आत्मा होती है. मुझे लगता है कि उन्होंने मौसम वैज्ञानिकों वाला ही काम किया है. वैसे भी चौतरफ़ा व्यस्तता के इस दौर में ज्योतिषियों के पास इतना टाइम कहां होता है कि वे एक-एक व्यक्ति के एक-एक सवाल पर बेमतलब ही बर्बाद करें. वरना सही बताऊं तो मैं तो पिछले कई सालों से तलाश रहा हूं. मुझे आज तक किसी राजनेता में चेतना या आत्मा जैसी कोई चीज़ दिखी तो नहीं. फिर भी क्या पता होती ही हो! क्योंकि एक बार कोई राजनेता ही बता रहे थे कि वे अभी-अभी अपनी आत्मा स्विस बैंक में डिपॉज़िट करा के आ रहे हैं. इस चुनाव में एक नेताजी ने दावा किया है कि वे उसे लाने जा रहे हैं. पता नहीं किसने उनको बता दिया है कि अब वे पीएम होने जा रहे हैं. क्या पता किसी ज्योतिषी या तांत्रिक ने ही उनको इसका आश्वासन दिया हो. मैं सोच रहा हूं कि अगर वो पीएम बन गए और स्विस बैंक में जमा आत्माएं लेने चले गए तो आगे की राजनीति का क्या होगा?
Arvind Mishra said
सामयिक चिंतन ! बढिया है !
संगीता पुरी said
आखिर लिख ही डाला एक व्यंग्य .. अच्छा रहा .. मौसम , धंघे , शादी , चुनाव से बढते हुए ज्योतिष और ज्योतिषियों तक .. पर आप माने या न माने .. नेताओं में भरपूर चेतना होती है .. नहीं तो वे अपने आनेवाली पीढी दर पीढी के भविष्य को सुरक्षित रखने का इतना उपाय कैसे ढूंढ लेते हैं ?
Udan Tashtari said
संगीता जी की खेल भावना से इस बात को लेने की पहल बहुत साधुवादी रही और आपकी बात तो विचार योग्य हइये है. 🙂
Shiv Kumar Mishra said
नेता जी अगर आत्मा स्विस बैंक में जमा कर ही आये हैं तो उसे लाने की क्या ज़रुरत है. मैं तो कहता हूँ स्विस में आत्मा पहले से ही है. शरीर भी उधर ही चला जाता तो अच्छा था. लेकिन शायद स्विस बैंकों को मालूम है कि ई नेता शरीर लेकर वहां गया कि सब देश को गोबर कर डालेगा.अच्छा है कि केवल आत्मा वहां रख आया है. कम से कम वह देश तो बचा रहे. वैसे भी हम भारतीय दूसरे देशों का अहित नहीं देखना चाहते. पकिस्तान इसका जीता-जागता उदाहरण है.
इष्ट देव सांकृत्यायन said
bhaaee shivkumar jeekyaa baata aapane kahee hai. jordara.
AlbelaKhatri.com said
achhi post k liye hardik badhai
Alok Nandan said
मस्त पोस्ट है, चीजों को तार तार करती हुई…..लोकसभा में चेतना है या नहीं, लोकसभा को किस रूप में लिया जाना चाहिये। संगीता जी कहती हैं कि राजनीतिक पार्टियों में चेतना नहीं होती है, इसके पीछे जो तर्क देती हैं उससे तो यही आभास होता है कि लोकसभा में भी चेतना नहीं है। मौसम और ज्चोतिष को बहुत ही मजबूती से पीरोया है आपने …..बस पढ़ता ही चला गया……
प्रवीण त्रिवेदी...प्राइमरी का मास्टर said
बढ़िया तुलनात्मक व्यंग!!शुरू से पढ़ा तो आते आते और मजा आया!!बकिया स्विस बैंक वाली बैटन में दम!!
Shefali Pande said
बहुत धारदार व्यंग्य है …बढ़िया तुलना …
alka sarwat said
यह सभी राष्ट्रीय प्राणी सरकार द्वारा संरक्षित घोषित हैं आप इनकी तरफ टेढी निगाह से भी नहीं देख सकते
इष्ट देव सांकृत्यायन said
अलका जी! आपकी बात तो सौ फ़ीसदी सच है.
डॉ .अनुराग said
जब चेतना पूरी तरह लुप्त होती है तभी तो वे राजनीति के योग्य होते है…..वैसे इस मौसम में शादी बड़ी खराब चीज है .पसीना संभालो या हाथ की प्लेट…
इष्ट देव सांकृत्यायन said
डॉक्टर अनुरागआपकी बात बिलकुल सही हैं. राजनीति की बुनियादी योग्यता ही यही है. और शादी तो ख़ैर, हर मौसम में बड़ी ख़राब चीज़ है.
योगेन्द्र मौदगिल said
मामला जोरदार है…….
शोभना चौरे said
netao aur atma par bda steek vyngy.
रंजीत said
सांकृत्यायन भाई, इस दमघोंटू दौर में जब मनुष्य की बुनियादी चेतनाएं, जो उसे मनुज योनि में जन्म लेने के कारण जन्मजात मिल जाती हैं, वे भी लुप्त हो रही हैं, खो रही है, कुंठित हो रही हैं या फिर जबर्दस्ती दबा दी जा रही हैं तब सामाजिक संस्थाओं से चेतनशील होने की अपेक्षा करना कितना ठीक होगा ? आपको मैं अभी दो दिन पहले अपने आंखों से देखी एक घटना बताना चाहूंगा। रांची के एक संभ्रांत मोहल्ले के एक सभ्रांत पति दिन-दहाड़े सड़क पर शराब पीकर अपनी पत्नी को बेवजह नंगा कर रहे थे और सामने के लोग तमाशा देख रहे थे और हैरत की बात यह कि वे इसमें आनंद भी पा रहे थे। क्या इससे साफ नहीं होता कि मनुष्य ने अपनी बुनियादी चेतना गंवा दी है ? रांची वाशिंगटन भी नहीं है और न ही इसे आप आमेजन घाटी का कोई अनजाना-आदिम द्वीप कह सकते हैं।तब राजनीतिक संस्थाओं से चेतनशील और संवेदनशील होन की कैसी उम्मीद ? वैसे समाज विकास और मानव विकास का तकाजा यही है कि राजनीतिक संस्थाओं को सबसे ज्यादा चेतनशील और संवेदनशील होना चाहिए। चिंतनशील वर्ग, कलाकार वर्ग, रचनाकार वर्ग और पत्रकार वर्ग की यह जिम्मेदारी है कि वह इसके लिए प्रयास करे। मुझे नहीं लगता कि ज्योतिष, भाग्य, नक्षत्र और ग्रहों के जानकार इसमें कोई भूमिका निभा सकते हैं। आपका व्यंग्य इन प्रवृत्तियों के खत्म होने से बचाने में कम होते प्रयास को भी परिलक्षित कर रहा है। आग्रह करता हूं कि मूल्यों के निर्माण को प्रेरित करने के बारे में भी आप कुछ लिखें। आप से उम्मीद रहती है। सादररंजीत
Anonymous said
१)बुरेक्रेट्स को मैनेज करना २)जांच अजेंसिओं ,कमीटीयों और आयोगों को मैनेज करना ३)कोअलिशन को मैनेज करना ४)ब्लैक मनी को मैनेज करना ५)उद्योग पतियों को मैनेज करना ६) बाहुबली गुंडों को मैनेज करना ७)बूथ मैनेज करना ८)पब्लिक को हांकना -चराना – बछडा दिखा के दूहना …..और क्या क्या मैनेज करना होता …बाप रे बाप इत्ता काम अचेतावस्था में कैसे संभव है …इसीलिए इस अध खोपडा का मानना है की इनलोगों में जबरदस्त चेतना ना होती तो ये लोग किसी को चीट ना कर पाते ..स्विस बैंकों से ज्यादा माल तो देश में ही गिरगिट गुरु लोग काला से सफ़ेद कर देते हैं.वैसे भी स्विस बैंक से पैसा लाना कौन सा मुश्किल काम है ..वो तो आता जाता रहता है ,काले धन को सफ़ेद करो और ले आओ …बस आ गया …अपन के देश में तो काले धन पर कौन नज़र लगा सकता है साला काज़ल टीके की भी जरूरत नहीं .यदि बाहर ही रखना है तो स्विस बैंक से निकाल के मलेसिया -वलेसिया जैसे देशों में रख दो ये भी स्विस बैंकों से कम गोपनीयता नहीं प्रदान करते ..इ काम तो बड़ी मुस्तैदी और फुर्ती के साथ हो भी रहा हो शायद ..स्विस बैंक काला धन के मुद्दे को उठाने वालों के जबानी अकाउंट में डेबिट प्रक्रिया शुरू भी हो चुकी है …कुछ दिन पहले ७५ लाख करोड़ ,…फिर ७० लाख करोड़ …फिर अब साधे सात लाख करोड़ …फिर ४०००० करोड़ खैर इ पैसा इधर उधर करने की भी का जरूरत? …सुप्रीम कोर्ट से सरकार बोलती ही है की ऊ स्विस बैंक काला धन को ले के पास्ट की तरह ही बहुते गंभीर है …आ इ गंभीरता बिना चेतना के कईसे संभव ?मामले को थोडा सा पेंच लगा के खेंच दो बस बुद्धू पब्लिक के शोर्ट टर्म मेमोरी में से सब कुछ गायब !…ऐसे कर के http://economictimes.indiatimes.com/News/PoliticsNation/Indian-documents-in-black-money-case-forged-Swiss-government/articleshow/4511137.cmshttp://economictimes.indiatimes.com/News/PoliticsNation/Indian-documents-in-black-money-case-forged-Swiss-government/articleshow/4511137.cms हाँ तो भाई लोगन नए किस्म का चावल बिना दाल के खा के पब्लिक लोग भी अपन चेतना जगाये ….एक दो तिहाई चेतना तो जागिये जाएगा
गौतम राजरिशी said
“मुझे आज तक किसी राजनेता में चेतना या आत्मा जैसी कोई चीज़ दिखी तो नहीं”…सच कहते हैंहो तब तो दिखे
ज्ञानदत्त पाण्डेय | Gyandutt Pandey said
यह तो जबरदस्त है – फैण्टाबुलस पोस्ट। वैसे आपकी क्या सलाह है – अगर अब भी पामिस्ट्री/ज्योतिष सीख कर ट्राई करूं तो दुकान दउरी चल जायेगी?!
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said
नेता जी की आत्मा उधरिच ही भटके तो ठीक है। कम से कम भारत-भूमि को थोड़ी राहत तो मिल जाएगी।झन्नाटेदार पोस्ट है यह। पढ़कर मजा आ गया।