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पोंगापंथ अपटु कन्याकुमारी -5

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on January 14, 2010

( मेरी यात्रा मदुराई तक पहंची थी, उसका वर्णन मैंने किया था। उसके बाद वास्तविक यात्रा तो नहीं रुकी किन्तु उसका वर्णन रुक गया।इस बीच में कुछ तो इधर – उधर आना जाना रहा और कुछ कम्प्यूटर महोदय का साथ न देना। पहले विण्डोज उड़ीं और फिर लम्बे समय तक इण्टरनेट नहीं चला! अब लगता है कि सब कुछ ठीक है और मैं फिर यात्रा पर निकल चुका हूँ , इस बार आपके साथ और यात्रा पूरी करने का पूरा इरादा है।)

मदुराई पहुंचे तो दोपहर के करीब बारह बज रहे थे। लगभग तीन सौ किमी की दूरी तय करने में करीब साढ़े सात घंटे लग गए जबकि ट्रेन एक्सप्रेस थी, खैर मुझे भारतीय रेल का चरित्र ठीक से मालूम है इसलिए हैरानी की कोई बात नहीं लगी। वहां पहुचे तो हम सभी थके थे , रात के जागरण का असर साफ दिख रहा था। अब हमारी प्राथमिकता थी कि कोई होटल लें और कुछ देर विश्राम करें । बाहर ऑटो वालों से बात हुई। मित्र ने कहा कि पहले चल के होटल देख आएं और फिर परिवार को ले जाएं। रात की घटना से सीख लेकर मैं उबर चुका था और अब गलती दुहराने की मूर्खता नहीं कर सकता था। अतः इस प्रस्ताव को मैंने सिरे से नकार दिया।ऑटो वाले से बात की और मीनाक्षी मंदिर के पास ही जाकर एक होटल में ठहर गए। नहा-धोकर ताजा होने के बाद ही हमारा अगला कार्यक्रम हो सकता था।मदुराई के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था और आज यह सोचकर मैं बहुत खुश था कि भारत के एक अत्यन्त प्राचीन नगर पहुँच पाने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका था । थोड़ी देर के आराम के बाद हम मीनाक्षी मंदिर के दर्शन के लिए चल दिए।

मदुराई भारतवर्ष के प्राचीनतम नगरों में एक है। दक्षिण भारत का यह सबसे पुराना नगर है और विशेष बात तो यह है कि अभी भी इसकी प्राचीनता बरकरार है। वैगाई नदी के किनारे बसे इस नगर की ऐतिहासिकता और सौन्दर्य अक्षुण्ण और अनुपम है। इस नगर की संस्कृति और सभ्यता सदियों पुरानी है । प्राचीन विश्व के अतिविकसित यूनान और रोम से इसके व्यापारिक संबंध थे, मेगास्थनीज भी तीसरी सदी (ई0पू0) में मदुराई की यात्रा पर आया था।मदुराई संगम काल के समय से एक स्थापित नगर है , पहले पांड्य वंश की राजधानी रहा और चोल शासकों ने दसवीं सदी में इस पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था।मदुराई मूलतः मीनाक्षी मंदिर के कारण टेम्पल टाउन के नाम से जाना जाता है। यह शहर मंदिर के चारो ओर बसा हुआ है।मंदिर के चारो ओर आयताकार रूप में सड़के बनी हुई हैं। इन गलियों के नाम तमिल महीनों के नाम पर रखे गए हैं।मीनाक्षी मंदिरजहाँ हम रुके थे , उस होटल से मीनाक्षी मंदिर पैदल पाँच मिनट का रास्ता था। हमें यह पता चला कि मंदिर सायं पांच बजे दर्शनार्थ खुलता है। अस्तु हम यथासमय मंदिर के लिए निकल पड़े।मंदिर का गोपुरम मदुराई के किसी भी कोने से दिख जाए, इतना विशाल है। इस पर दृष्टि पड़ते ही मन मुग्ध हो गया । मंदिर में चारों दिशाओं से प्रवेश के लिए चार गोपुरम (प्रवेश द्वार) है। हम पूर्वी गोपुरम से प्रवेश कर रहे थे और यह गोपुरम सबसे शानदार है। मंदिर में प्रवेश से पूर्व सामान्य सुरक्षा जांच होती है किन्तु कोई खास प्रतिबंध मुझे नहीं दिखा। हमें मोबाइल फोन अंदर ले जाने से भी नहीं रोका गया। मंदिर की विशालता में एक बार अलग हो जाने पर यही मोबाइल काम आया।

मंदिर में एक सामान्य सी लाइन दिख रही थी, कुछ खास समझ में न आने कारण हम आगे बढ़ गए, इस विचार से कि अन्दर जाकर व्यवस्था के अनुरूप हम भी दर्शनार्थ पंक्तिबद्ध हों। कुछ अपने स्तर पर करें , इससे पूर्व ही कोई मंदिर कर्मचारी ( जो हमारे रंगरूप और शारीरिक भाषा से समझ गया था कि हम उत्तर भारतीय हैं ) भागा हुआ आया और निर्देश दिया कि अगर हमें दर्शन करना है तो निकट ही बने बूथ से प्रति व्यक्ति पंद्रह रुपये की दर से टिकट लेना होगा। जहां हम खड़े थे , वहां से प्रवेश के लिए कोई मार्ग नहीं था। लाइन हमारे सामने थी, पर उसकी उत्पत्ति कहाँ से थी इसका हमें पता नहीं चल पा रहा था। भाषा की समस्या तो थी ही, तथाकथित गाइड न तो ठीक से हिन्दी बोल पा रहा था और न ढंग की अंगरेजी ! अंततः हमने टिकट ले ही लिया। अब हमें एक बैरीकेड खोलकर एक अन्य लाइन का सीधा रास्ता दे दिया गया। दर असल यह विशेष लाइन थी जो या तो पेड थी या फिर वीआइपी॰। अब तो हम क्षण भर के अंदर मीनाक्षी देवी की प्रतिमा के सामने थे।

सामान्यतः कोई भी पंद्रह रुपये की व्यवस्था पर प्रायः खुश होता। दर्शन कितनी जल्दी मिल गए! पर मेरी भी कुछ मानसिक समस्याएं हैं। पता नहीं आज तक ईश्वर के दरबार में यह वीआइपीपना मुझे रास नहीं आया। मैं सोचता ही रह गया कि इस तरह की विशेष सुविधा का लाभ हम कितनी जगहों पर लेते रहेंगे ? पैसे के बल पर और पैसे के लोभ में इस तरह का व्यापार हम कहाँ- कहाँ करते रहेंगे ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जहां हम आस्था , विश्वास और श्रद्धा का भाव लेकर जाएं , वहाँ तो कम से कम अपने को एक सामान्य मनुष्य मान लें ! क्या ऐसी व्यवस्थाएं नितान्त जरूरी हैं ?क्या मंदिर प्रबन्धन एक समानता का नियम नहीं बना सकता ? क्या आर्थिक एवं सामाजिक महत्त्व का बिगुल हम यहाँ भी बजाते रहेंगे ? दर्शनोपरान्त मुझे मालूम हुआ था कि मेरे सामने जो लाइन थी वह सामान्य अर्थात निश्शुल्क लाइन थी और वह पीछे से आ रही थी। बस, जरा देर लगती है, और मैं विशेष लाइन में लगने के अपराधबोध से जल्दी मुक्त नहीं हो पाया!

9 Responses to “पोंगापंथ अपटु कन्याकुमारी -5”

  1. बहुत अच्छा वृतांत. सुविधा भोगने की आदत कुछ यूँ हो गई है कि जिस बात से आपको अपराध बोध हुआ गर वो न हो, तो कितनों को क्षोब हो जाये.

  2. यात्रा वृत्तान्त सुन्दर है जी!सुस्वागतम!!

  3. बहुत ही अच्छा वृतांत,जारी रखें.

  4. कुछ फोटो शोटो भी लगा देते..भाई..

  5. RAJ SINH said

    प्रभु का दरबार या धन बल का पैरोकार ? दुःख होता है .वैसे वर्णन सरस और जीवंत है.

  6. incitizen said

    ईश्वर के दरबार में भी वीआईपी पना चलता है. क्या किया जाये.

  7. Dr.Anurag ji, I am really sorry for not pasting any photos. In fact , I have many of them but because of some technical problems I could not. Next time I'll try to.

  8. बेहतर है…वैसे देवालयों में ईश्वर का निर्माण वीआईपी लोगों द्वारा ही किया गया है, इसलिये वीआईपी लाइन को लेकर टेंशन लेने की जरूरत नहीं है..

  9. मेरा मदुरै जाना कई बार हुआ है. वैसे मैंने भी इस शहर और मंदिर को काफी पसंद किया. वैसे ये अलग बात है, की मैंने कभी विस्तार से इसके बारे में लिख नहीं पाया. अच्छा लगा की आप उत्तर भारत से आकर इस मंदिर को देखे. मैं काफी दिनों से रोजी रोटी के सिलसिले में बंगलोर में हूँ और दक्षिण भारत के कई मंदिरों में घूम चूका हूँ. शुरू में ये पैसा दे के वी.आई.पी दर्शन की बात मेरे भी समझ में नहीं आती थी. पर मैंने देखा की यहाँ साउथ के हर मंदिर में यही चलन है. बाकायदा पर्ची काट के दी जाती है. पर इसके अच्छे पहलू भी हैं. कि आप अनायास की भीड़-भाड़ और पंडों की चाँव -चाँव से बच जाते हैं. और ये भी आपको पता चल जाता है, कि ये पैसा जो भी हो मंदिर की संस्था में ही जा रहा है. तो ये अपराधबोध से बाहर आ जाएँ श्रीमान.. भगवान् ऐसी छोटी – छोटी बातों का बुरा नहीं मानते हैं. उनके पास और भी तो काम है…

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