खुद को खोना ही पड़ेगा
Posted by Isht Deo Sankrityaayan on January 22, 2010
लंबे समय से ब्लाग पर न आ पाने के लिए माफी चाहता हूं। दरअसल, हमारे चाहने भर से कुछ नहीं होता। इसके पहले जब मैंने अपनी गजल पोस्ट की थी, उस पर आपने बहुत सी उत्साहजनक टिप्पणियां देकर मुझे अच्छा लिखने को प्रेरित किया था। आज जो गजल पेश कर रहा हूं, यह किस मनोदशा में लिखी गई, यह नहीं जानता। हां, यहां निराशा हमें आशा की ओर ले जाते हुए नहीं दिखती…?-
अब तो हमको दूर तक कोई खुशी दिखती नहीं
जिंदा रहकर भी कहीं भी जिंदगी दिखती नहीं
हर किसी चेहरे पे हमको दूसरा चेहरा दिखा
एक भी चेहरे के पीछे रोशनी दिखती नहीं
जिनको आंखों का दिखा ही सच लगे, मासूम हैं
बेबसी झकझोर देती है, कभी दिखती नहीं
खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार पाने के लिए
देखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहीं
खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार देने के लिए
आंख ही सबकुछ दिखाती है, अजी दिखती नहीं।
भारतीय नागरिक - Indian Citizen said
कभी कभी मुझे भी घोर निराशा होती है लेकिन फिर छंट जाती है.
डॉ. मनोज मिश्र said
देखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहींsundr laine.
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said
सच्चे मोतियों से सजी इस रचना के लिए बधाई!
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said
सुन्दर रचना।
अनिल कान्त : said
खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार पाने के लिएदेखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहींये पंक्तियाँ बहुत पसंद आयीं
Udan Tashtari said
खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार पाने के लिएदेखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहीं-क्या बात है..
राकेश 'सोहम' said
जो सबने सराहा वही बात मैं रखता हूँ कि -देखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहीं