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खुद को खोना ही पड़ेगा

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on January 22, 2010

लंबे समय से ब्लाग पर न आ पाने के लिए माफी चाहता हूं। दरअसल, हमारे चाहने भर से कुछ नहीं होता। इसके पहले जब मैंने अपनी गजल पोस्ट की थी, उस पर आपने बहुत सी उत्साहजनक टिप्पणियां देकर मुझे अच्छा लिखने को प्रेरित किया था। आज जो गजल पेश कर रहा हूं, यह किस मनोदशा में लिखी गई, यह नहीं जानता। हां, यहां निराशा हमें आशा की ओर ले जाते हुए नहीं दिखती…?-

अब तो हमको दूर तक कोई खुशी दिखती नहीं
जिंदा रहकर भी कहीं भी जिंदगी दिखती नहीं

हर किसी चेहरे पे हमको दूसरा चेहरा दिखा
एक भी चेहरे के पीछे रोशनी दिखती नहीं

जिनको आंखों का दिखा ही सच लगे, मासूम हैं
बेबसी झकझोर देती है, कभी दिखती नहीं

खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार पाने के लिए
देखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहीं

खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार देने के लिए
आंख ही सबकुछ दिखाती है, अजी दिखती नहीं।

7 Responses to “खुद को खोना ही पड़ेगा”

  1. कभी कभी मुझे भी घोर निराशा होती है लेकिन फिर छंट जाती है.

  2. देखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहींsundr laine.

  3. सच्चे मोतियों से सजी इस रचना के लिए बधाई!

  4. सुन्दर रचना।

  5. खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार पाने के लिएदेखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहींये पंक्तियाँ बहुत पसंद आयीं

  6. खुद को खोना ही पड़ेगा प्यार पाने के लिएदेखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहीं-क्या बात है..

  7. जो सबने सराहा वही बात मैं रखता हूँ कि -देखिए, मिलकर समंदर से नदी दिखती नहीं

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