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Archive for May, 2009

क्योंकि थोड़ा सा मैं भी जीना चाहती हूं

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 30, 2009

(माइक्रो-स्टोरी)
“तू है कौन?”
“जिंदगी”
“तो यहां क्या कर रही है।?“
“तुम्हारे साथ हूं?”
“क्यों?”
“क्योंकि थोड़ा सा मैं भी जीना चाहती हूं।”

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तुम खुद मिटती हो और खुद बनती हो

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 27, 2009

समुद्र के छोर पर खड़े होकर लहरों के उफानों को देखता हूं
हर लहर तुझे एक आकार देते हुये मचलती है, तू ढलती है कई रंगों में
दूर छोर पर वर्षा से भरे काले बादलों की तरह तू लहराती है,
और बादलों का उमड़ता घुमड़ता आकार समुंद्र में दौड़ने लगता है
और उसकी छाया मेरी आंखों में आकार लेती है, उल्टे रूप से
विज्ञान के किसी सिद्दांत को सच करते हुये, तू मेरी आंखों में उतरती है
फिर समुंदर और आकाश में अपना शक्ल देखकर कहीं गुम हो जाती है।

ट्राय की हेलना में मैं तुम्हें टटोलता हूं, तू छिटक जाती है
जमीन पर दौड़ते, नाचते लट्टू की तरह, फिर लुढ़क जाती है निढाल होकर
तेरे चेहरे पर झलक आये पसीने की बूंदों को मैं देखता हूं
इन छोटी-छोटी बूंदों में तू चमकती है, छलकती है
इन बूंदों के सूखने के साथ, तुम्हारी दौड़ती हुई सांसे थमती है
ढक देती हैं समुंदर की लहरें तेरे चेहरे को, तू खुद मिटती है और खुद बनती है।
मैं तो बस देखता हूं तुझे मिटते और बनते हुये।

गहरी नींद तुझे अपनी आगोश में भर लेती है
और तू सपना बनकर मेरी जागती आंखों में उतरती है
ऊब-डूब करती, सुलझती-उलझती, आकृतियों में ढलती
पूरे कैनवास को तू ढक लेती है, व्यर्थ कविता की तरह
और अपने दिमाग के स्लेट को मैं साफ करता हूं, धीरे-धीरे
और फिर खुद नींद बनकर जागता हूं तोरी सोई आंखों में
तेरे अचेतन में पड़े बक्सों को खोलता हूं, एक के बाद एक
और लिखकर के काटी हुई पंक्तियों में उलझ जाता हूं…
तुम खुद मिटती हो और खुद बनती हो….कटी हुई पंक्तियां तो कही कहती है।

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—क्योंकि मुझे अमरत्व में यकीन है

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 24, 2009

सिगरेट की धुयें की तरह
तेरे दिल को टटोल कर
तेरे होठों से मैं बाहर निकलता हूं,
हवायें अपने इशारों से मुझे उड़ा ले जाती है।

तुम देखती हो नीले आसमान की ओर
मैं देखता हूं तुम्हे आवारा ख्यालों में गुम होते हुये।

तुम सिगरेट की टूटी को
जमीन पर फेंककर रौंदती हो,
और मैं बादलों में लिपटकर मु्स्कराता हूं।

मुझे यकीन है, तमाम आवारगी के बाद
इन बादलों में बूंद बनकर फिर आऊँगा
और भींगने की चाहत
तुझे भी खींच लाएगी डेहरी के बाहर।

हर बूंद तेरे रोम-रोम को छूते
हुये निकल जाएगी,
धरती पर पहुंचने के पहले ही
तेरी खुश्बू मेरी सांसों में ढल जाएगी

मैं बार-बार आऊंगा, रूप बदलकर
——-क्योंकि मुझे अमरत्व में यकीन है।

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एनिमेशन की बारिकियों को बताया जा रहा है

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 24, 2009

मुंबई के पवई स्थित रेसीडेंस कन्वेनशन सेंटर में कल सुबह से ही लोग जुटे हुये हैं। एनिमेशन की दुनिया को नजदीक से समझने और जानने की ललक उन्हें यहां खींच लाई है। इसमें एनिमेशन जगत से जुड़ी कंपनियों के साथ-साथ कई शैक्षणिक संस्थाओं ने शिरकत किया है। विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से एनिमेशन, जगत की बारीक जानकारी दी जा रही है। एक एनिमेशन फिल्म कैसे बनता है, उसको बनाने की प्रक्रिया क्या है, चरित्रों को कैसे आकार दिया जाता है, और कैसे उनमें रंग भरे जाते हैं, उनकी लोच और गति कैसे निर्धारित की जाती है आदि को बहुत ही सरल तरीके से समझाया जा रहा है।
मेले में युवा छात्र-छात्राओं की भीड़ हैं। एनिमेशन की दुनिया को समझने के लिये युवाओं का झूंड लगभग सभी स्टालों पर नजर आ रहा है। हंसते-चहलकते हुये लोग एनिमेशन की बारिकियों को सीख रहे हैं। एनिमेशन से संबंधित कई विषयों पर सेमिनार का भी आयोजन चल रहा है।विभिन्न तरह के शैक्षणिक संस्थायें युवाओं को एनिमेशन तकनीक के प्रति आकर्षित करने के लिए अपना-अपना स्टाल लगाये हुये हैं, जैसे डिजिटल एशिया स्कूल आफ एनिमेशन, एफ एक्स स्कूल, जी इंस्टीट्यूट आफ क्रिएटिव आर्ट, सीआरईए स्कूल आफ डिजिटल आर्ट, फ्रेमबाक्स एनिमेशन, विजुअल इफेक्ट, दि कालेज आफ एनिमेशन बायोइंजियनिरिंग, ड्रीम वर्क, ग्राफिटी स्कूल आफ एनिमेशन,पिकासो एनिमेशन कालेज आदि।
ये शैक्षणिक संस्थान एनिमेशन से संबंधित तमाम कोर्सों के बारे में आगंतुको को विस्तार से बता रहे हैं, साथ ही इस बात का भी यकीन दिला रहे हैं कि आने वाले समय में एनिमेशन उद्योग में पूरी संभावना है।
इस मेले में विभिन्न तरह के एनिमेटड फिल्मों का प्रदर्शन भी किया जा रहा है। निर्मित और अर्द्ध-निर्मित फिल्मों से जुड़ लोग फिल्म निर्माण के दौरान किये जाने वाले प्रयासों को रोचकता और बारीकी से रख रहे हैं। इसमें एनिमेटेड फिल्म की फिलोसफी से लेकर उसके निर्माण प्रक्रिया को पूरी मजबूती से रख जा रहा है। आगंतुकों को तकनीक के साथ-साथ इसके कला पक्ष को समझने में सहुलियत हो रही है। जैसे एनिमेशन फिल्म में एक चरित्र के निर्माण की प्रक्रिया क्या है, उसके लिए किस साफ्टवेयर का इस्तेमाल किया जाता है, कैसे उसमें रंग भरे जाते हैं आदि।
इस मेले में विदेशी कंपनियां भी शिरकत कर रही हैं, और एनिमेशन से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर रोशनी डाल रही हैं। इस क्षेत्र में काम करने वाले प्रतिभाशाली लोगों के लिए यहां पर विदेशी कंपनियों में रोजगार पाने के भी अवसर उपलब्ध है।
इस मेले का आयोजन सीटी तंत्रा कर रहा है। कल रात सीजी तंत्रा की ओर से एनिमेशन के क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों को पुरस्कृत भी किया गया। कुल मिलाकर यह मेला देखने लायक है। एनिमेशन से संबंधित तकनीक को समझने का अवसर मिलेगा।

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भाजपा का सत्यानाश तो होना ही था

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 22, 2009

लाख टके की सवाल है कि भाजपा हारी क्यों। अगले पांच साल तक भाजपा को लगातार इस प्रश्न को मथना होगा। त्वरित प्रतिक्रिया में टीवी वाले भाजपा की हार बजाय कांग्रेस की जीत को महत्व देते हुये राहुल गांधी को हीरो बनाने पर तुले हुये हैं, और यह स्वाभाविक भी है। टीवी वालों को परोसने के लिए खुराक चाहिये। भाजपा के नीति निर्धारण में शामिल लोगों को अपनी खोपड़ी को ठंडा करके इस हार के कारणों की पड़ताल करनी होगी।
भाजपा की हार का प्रमुख कारण है भाजपा की पहचान का गुम होना। पूरे चुनाव में भाजपा शब्द कहीं सुनाई ही नहीं दिया। भाजपा की एक पृथक पहचान हुआ करती थी, जो गठबंधन में पूरी तरह से गुम हो गई थी। अब जब पार्टी की पहचान ही गुम हो जाये तो जीतने का सवाल ही कहां पैदा होता है।
एक तरफ देश में जहां भाजपा की पहचान गुम हुई वहीं दूसरी तरफ देश के मुसलमान भाजपा को नहीं भूले थे। प्रत्येक मतदान क्षेत्र में वे लोग भाजपा के खिलाफ सक्रिय नकारात्मक मतदाता की भूमिका में नजर आये। भाजपा के खिलाफ तो उन्हें वोट करना ही था। साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि किसी एसे व्यक्ति को उनका वोट न मिले जो जीतने के बाद भाजपा के खेमे में चला जाये। एसी परिस्थिति में वे कांग्रेस के वे स्वाभाविक मतदाता बन गये।
भाजपा की अंदरुनी राजनीति भी बुरी तरह से गडमगड रही। आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना एक बड़ी गलती थी। आडवाणी भाजपा कार्यकर्ताओं में आत्मविश्वास पैदा नहीं कर सके, क्योंकि उनके अंदर इस क्षमता का ह्रास बहुत पहले ही हो चुका था। एक बहुत बड़े हिन्दू समुदाय के बीच, जो भाजपा का कैडर था, पाकिस्तान में जिन्ना के कब्र पर माथा टेककर वह अपनी विश्वसनीयता खो चुके थे। इसके साथ ही मुसलमानों के बीच में आडवाणी की छवि में कोई बदलाव नहीं हुआ था। आडवाणी का दोहरा व्यक्तित्व भाजपा के लिये घातक साबित हुआ।
इसके अलावा भाजपा के प्रचारतंत्र में जुटे लोगों की भी नपुंसकता खुलकर दिखाई दी। जितने भी पोस्टर तैयार किये गये थे उनमें आडवाणी को प्रमुखता से दिखाया गया था, और भाजपा के विगत इतिहास की कहीं कोई झलक नहीं रखी गई। अटल बिहारी वाजपेयी को पोस्टरों से दूर रखा गया, जबकि भापपा की परंपरा को मजबूती के साथ रखने के लिए उन्हें प्रचार अभियान के तहत पोस्टरों में शामिल किया जाना चाहिये था। गांवों में एक बहुत बड़ा तबका आज भी अटल बिहारी वाजपेयी को न सिर्फ पहचानता है बल्कि प्यार भी करता है।
आडवाणी विदेशी मुल्कों में जमा भारतीय धन को वापस लाने की बात कर रहे थे,जबकि इस मुद्दे से ग्रामीण भारत का कही दूर दूर तक लेना देना नहीं है। इस मुद्दे से वे अपने आप को जोड़ ही नहीं पा रहे थे। इधर शहरी तबका को पता था कि आडवाणी की बातें खोखली हैं, क्योंकि यह संभव ही नहीं था। साथ ही इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि भाजपा के समर्थकों में एसे लोग भी थे जिनके पैसे विदेशों में रन कर रही हैं। इस मुद्दे पर ये लोग भी भाजपा से अलग हो गये।
भारत में एक बहुत बड़ा तबका दाल रोटी से ऊपर उठ चुका है। ये हाईटेक की ओर भाग रहा है। भाजपा ने जिस तरह से मेल, नेट और एसएमस का इस्तेमाल किया उससे यह वर्ग इरिटेट हुया। इस वर्ग की अपनी मानसिकता विकसित हो गई है और भाजपा को इस मानसिकता को समझकर प्रचार अभियान चलाना चाहिये थे। पिछले प्रचार नेट प्रचार अभियान से तो निश्चित रूप से इसे सबक लेना चाहिये था। पिछली बार ये लोग फीलगुड करा रहे थे, जो एक अस्पष्ट सी अवधारणा थी। और जिस तरह से भाजपा ने लोगों के ऊपर हाईटेक प्रचार हमला किया था उसका उल्टा ही असर पड़ा। इस बार भाजपा के हाईटेक प्रचार अभियान में भी सिर्फ और सिर्फ आडवाणी ही शामिल थे।
कांग्रेस की सफलता का श्रेय राहुल गांधी को देने वाले भारत में हुये मतदान पैटर्न को गलत तरीके से प्रस्तुत कर रहे हैं। यदि सही तरीके से कहा जाये तो मतदान पैटर्न को ये लोग प्रस्तुत ही नहीं कर रहे हैं। मतदाताओं पर राहुल गांधी का प्रभाव सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रहा है, वो भी सिर्फ पांच प्रतिशत मतदाताओं पर। इससे ज्यादा कुछ नहीं है। इस चुनाव के सबसे निर्णायक कारकों में महत्वपूर्ण है मुस्लिम मतदाताओं का व्यवहार। बिहार में लालू का माई ध्वस्त हुआ। मुस्लिम मतदाताओं ने वहां पर जनता दल एस और कांग्रेस को अपना मत दिया। नीतिश कुमार का कभी कोई कौम्यूनल बैकग्राउंड नहीं रहा है। सुशासन की बात कह करके नीतिश ने अपनी छवि को मजबूत बनाया और मुस्लिम मतदाताओं का विश्वास जीतने में सफल रहे। गठबंधन में शामिल होकर भी नीतिश ने अपने आप को अलग तरीके से प्रस्तुत किया और इस रुप में उनकी मजबूरी को समझते हुये मुस्लिमों ने उन्हें अपना वोट दिया।
कांग्रेस ने अपने पुराने बागियों को साथ लेकर न सिर्फ डैमेज को रोका, बल्कि अन्य पार्टियों को डैमेज करते हुये इसका फायदा भी उठाया। उत्तर प्रदेश में मायावती के खिलाफ मुसलामानों के दिमाग में यह भ्रम फैलाने में कांग्रेस सफल रही कि जरूरत पड़ने पर मायावती भाजपा की गोद में बैठ सकती है। और अपने पिछले कारनामों के कारण मायावती मुसलमानों का विश्वास नहीं जीत सकी। उधर मुलायम सिंह ने कल्याण सिंह को मंच प्रदान करके हार्डकोर मुसलमानों को सकते में डाल दिया। चूंकि बाबरी डैमेज के समय कल्याण सिंह ताल ठोकनो वालों में शामिल थे। इसलिये हार्डकोर मुसलमान मुलायम सिंह के हाथ से फिसल गये। कांग्रेस को इसका पूरा फायदा मिला।
एक फिर दोहरा दूं कि भाजपा का उत्थान हिन्दुत्व के लहर पर हुआ था, और वह उससे कब विमुख हुई खुद उसे भी पता नहीं चला। सत्ता की चाहत उसकी पहचान को निगल गई और वह गठबंधनों के भीड़ में गुम हो गई। भारत के मुसलमान इस बात को महसूस कर रहे हैं कि कांग्रेस पूरी तरह से वंशवाद की चपेट में है, लेकिन उनके पास विकल्प नहीं है। भाजपा का बेस हिन्दुत्व रहा है, हालांकि अब बेस छिटक गया है। भाजपा को खुद पता नहीं है कि उसकी जमीन क्या है। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व भाजपा गांव, चौपालों, खेतों और खलिहानों तक फैली थी। भाजपा इस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी को भी भुला दी….सत्यानाश तो होना ही था।

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पुरुख के भाग

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 19, 2009

‘हे दू नम्मर! अब का ताकते हो? जाओ. तुमको तो मालुमे है कि तुम्हरा नाम किलियर नईं हुआ. भेटिंगे में रह गया है.’
दो नंबर ने कहा कुछ नहीं. बस उस दफ्तर के चपरासी को पूरे ग़ुस्से से भरकर ताका. इस बात का पूरा प्रयास करते हुए कि कहीं उसे ऐसा न लग जाए कि वो उसे हड़काने की कोशिश कर रहे हैं, पर साथ ही इस बात का पूरा ख़याल भी रखा कि वह हड़क भी जाए. आंखों ही आंखों के इशारे से उन्होंने समझाना चाहा कि अबे घोंचू, बड़ा स्मार्ट बन रहा है अब. इसी दफ्तर में एक दिन मुझे देख कर तेरी घिग्घी बंध जाती थी. अब तू मुझे वेटिंग लिस्ट समझा रहा है और अगर कहीं उसमें मेरा नाम क्लियर हो गया होता तो आज तू दो हज़ार बार मेरे कमरे के कोने-अंतरे में पोंछा मारने आता कि कहीं से मेरी नज़र तेरे ऊपर पड़ जाए. ऐसा उन्होंने सोचा, लेकिन कहा नहीं. वैसे सच तो ये है कि यही उनकी ख़ासियत भी है. वो जो सोचते हैं कभी कहते नहीं और जो कहते हैं वो तो क्या उसके आसपास की बातें भी कभी सोचते नहीं हैं. वो वही दिखने की कोशिश करते हैं जो हैं नहीं और जो हैं उसे छिपाने में ही पूरी ऊर्जा गंवा देते हैं. ये बात बहुत दिनों तक उस दफ्तर में रहे होने के नाते उस चपरासी को भी मालूम थी. लिहाजा उसने ताड़ ली. पर उसने भी कुछ कहा नहीं. इतने लंबे समय तक सीधे सरकार के दफ़्तर में चपरासी रहने का बौद्धिक स्तर पर उसने यही तो फ़ायदा उठाया था. वो जानता था कि कभी भी कोई भी घोड़ा-गधा इस दफ़्तर में घुस सकता था. जो उसके जितनी भी क़ाबिलीयत नहीं रखता, वो पूरे देश के सारे अफ़सरों को हांकने का हक़दार हो सकता है. उसे इसी आपिस के सीनियर चपरासी रामखेलावन कका इयाद आते हैं. अकसरे कहा करते थे कि तिरिया के चरित्तर के थाह त हो सकता है कि कौनो जोगी जती पा जाए, लेकिन पुरुख के भाग के थाह कौनो नईं पा सकता.
वैसे दू नंबर से उसे बड़ी सहानुभूति है. वह देख रहा है कि दू नम्मर घर से लेकर संसार तक हर तरफ़ दुए नम्मर रह जा रहा है. एही दफ़्तर के बगल के दफ़्तर में बैठ के चला गेया, लेकिन ई दफ़्तर में नईं बैठ पाया. अब का बैठ पाएगा. अब तो इनके पीछे पूरी लाइन खड़ी है और उहो ऐसी कि बस इनही के धकियाने के फेर में है. एक-दू नईं पूरा तीन-तीन नौजवान. 50 साल से ले के 70 साल के उमिर तक का तो इनके घर ही में मौजूद है. और ई तो ऐसहूं चला-चली के बेला में है. एक बात ऊ और देख चुका है और परतिया चुका है कि जो-जो बगल वाले दफ़्तर में बैठा, ऊ ए दफ़्तर में कबे नईं आ पाया. इनके पहिले भी कुछ बड़े-बड़े लोग ओही दफ़्तर से निपट गए. एही भाग्य है. पर पता नईं कौन ज्योतिखी के ई दिखाते हैं हाथ और ऊ बार-बार बोल देता है कि तुम बन जाओगे. लेकिन का पता भाई, बनिए जाए कबो! ऐसे-ऐसे लोग भी बने हैं जो कभी उसे चाय पिलाते रहे हैं, अपने नाम की पर्ची पहुंचाने के लिए तो ई तो फिर भी…… इसके पहले कि वह दो नंबर को खिसकाता तीन नंबर वाली धड़धड़ाती नज़र आईं. आंख मुंह निपोरते हुए पूरे ग़ुस्से में. एकबारगी तो उसको लगा कि ई तो घुसिये जाएंगी. लेकिन तबे ऐन दरवाजे पर पहुंच गया, ‘जी मैडम! केन्ने जा रही हैं? आपको मालुम है न वेटिंग लिस्ट में आपका नाम अबकी पारी किलियर नईं हुआ है!’ ’हे चल हट तो. तू क्या समझता है मैं तेरी इजाज़त की मोहताज हूं? मुझे जब जाना होगा तो तेरे कहने से जाउंगी?’ एकदम से फायर हो गईं तीन नंबर, ‘अभी मेरा जाने का अपना मूड नहीं है. समझा? तेरी वेटिंग लिस्ट का इंतज़ार मैं नहीं करती.’ अच्छा हुआ कि मैडम इधर-उधर टहलते हुए दफ़्तर के अंदर उसकी नज़र बचा कर एक नज़र मारती हुई आगे बढ़ गईं. मैडम के जाते ही उसने राहत की सांस ली. लेकिन इसके पहले कि बतौर राहत ली गई सांस को बाहर निकाल पाता अपने भरपूर लंपटपन और उचक्केपने के तेवर के साथ फूंय-फांय करते चार नम्मर लौका गए. ऊ आना त चाहते हैं इस दफ़्तर में लेकिन उन्हें कौनो जल्दी नहीं है. जिस काम की इनको बहुत जल्दी हो, उसको भी ई तीन महीना के भेटिंग में डाल सकते हैं. और नाम को सार्थक करने में तो इनका कोई जवाबे नहीं है. इनका बस चले तो देश की पंचवर्षीय योजना का भी नाम बदल के तत्काल कर दें. लेकिन एह बार तो बेचारे इस लायक भी नहीं बचे कि ए दफ़्तर के एन्ने-ओन्ने भी कौनो कोने बैठें. पर ताक-झांक में बेचारे लग गए हैं.
हालांकि ताक-झांक ऊ इस बार भी कर रहे हैं, पर सबसे नज़र बचा के. ऐसे ही जैसे कोई लफंगा लड़कियों के कॉलेज की तरफ़ जाता है. वैसे ही वो नज़र बचा के बड़ी हसरत से चेंबर के अंदर झांक भी गया.
अब जब देख ही लिया तो वो मान भी कैसे जाता! सरकार के दफ्तर का चपरासी ही कैसा जो जो थोड़ा जबरई न कर दे. बोल ही पड़ा, ‘का साहब अबकी बेर त आप भेटिंगों से बाहर हो गए……….’ लेकिन इसके पहले कि उसकी बात पूरी होती चार नम्मर ने उसको अंकवार में भर लिया, ‘ह बुड़बक, अरे भेटिंग-फेटिंग के फेर में कौन पड़ता है जी? हम त तुम्है हेर रहे थे. अरे ज़रा आ जाना घर पे. मलकिन तुमको याद कर रही थीं. लाई-चना भी भेजवाई हैं बचवन के लिए.’ अब चपरासी हाथ जोड़ चुका था, ‘और मालिक गैया के लिए…हें-हें-हें..’
‘हां-हां चारा भी है. रखा है. आना ले जाना.’ चार नम्मर ई कह के अभी आगे बढ़ भी नईं पाए थे कि तब तक एक नम्मर का रेला आ गया. ई ओही एक नम्मर था जो न कभी अंदर झांकने का हिम्मत किया न बाहर खड़े होने का. लेकिन बाह रे भाग. इसे कहते हैं पुरुख के भाग. उसने मन ही मन सोचा और सलाम मारने के लिए बिलकुल अटेंसन की मुद्रा में खड़ा हो गया.

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नेता और चेतना

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 15, 2009

हमारे देश में चीज़ों के साथ मौसमों और मौसमों के साथ जुड़े कुछ धंधों का बड़ा घालमेल है. इससे भी ज़्यादा घालमेल कुछ ख़ास मौसमों के साथ जुड़ी कुछ ख़ास रस्मों का है. मसलन अब देखिए न! बसंत और ग्रीष्म के बीच आने वाला जो ये कुछ-कुछ नामालूम सा मौसम है, ये ऐसा मौसम होता है जब दिन में बेहिसाब तपिश होती है, शाम को चिपचिपाहट, रात में उमस और भोर में ठंड भी लगने लगती है. आंधी तो क़रीब-क़रीब अकसर ही आ जाती है और जब-तब बरसात भी हो जाती है. मौसम इतने रंग बदलता है इन दिनों में कि भारतीय राजनीति भी शर्मसार हो जाए. अब समझ में आया कि चुनाव कराने के लिए यही दिन अकसर क्यों चुने जाते हैं. मौसम भी अनुकूल, हालात भी अनुकूल और चरित्र भी अनुकूल. तीनों अनुकूलताएं मिल कर जैसी यूनिफॉर्मिटी का निर्माण करती हैं, नेताजी लोगों के लिए यह बहुत प्रेरक होता है.

मुश्किल ये है कि ग्लोबीकरण के इस दौर में चीज़ों का पब्लिकीकरण भी बड़ी तेज़ी से हो रहा है. इतनी तेज़ी से कि लोग ख़ुद भी निजी यानी अपने नहीं रह गए हैं. और भारतीय राजनेताओं का तो आप जानते ही हैं, स्विस बैंकों में पड़े धन को छोड़कर बाक़ी इनका कुछ भी निजी नहीं है. सों कलाएं भी इनकी निजी नहीं रह गई हैं. रंग बदलने की कला पहले तो इनसे गिरगिटों ने सीखी, फिर आम पब्लिक यानी जनसामान्य कहे जाने वाले स्त्री-पुरुषों ने भी सीख ली. तो अब वह हर चुनाव के बाद इनकी स्थिति बदल देती है.

इन्हीं दिनों में एक और चीज़ बहुत ज़्यादा होती है और वह है शादी. मुझे शादी भी चुनाव और इस मौसम के साथ इसलिए याद आ रही है, क्योंकि इस मामले में भी ऐसा ही घपला होता है अकसर. हमारे यहां पत्नी बनने के लिए तत्पर कन्या को जब वर पक्ष के लोग देखने जाते हैं तो इतनी शीलवान, गुणवान और सुसंस्कृत दिखाई देती है कि वोट मांगने आया नेता भी उसके सामने पानी भरने को विवश हो जाए. पर पत्नी बनने के तुरंत बाद ही उसके रूप में चन्द्रमुखी से सूरजमुखी और फिर ज्वालामुखी का जो परिवर्तन आता है…. शादीशुदा पाठक यह बात ख़ुद ही बेहतर जानते होंगे.

चुनावों और शादियों के इसी मौसम में कुछ धंधे बड़ी ज़ोर-शोर से चटकते हैं. इनमें एक तो है टेंट का, दूसरा हलवाइयों, तीसरा बैंडबाजे और चौथा पंडितों का. इनमें से पहले, दूसरे और तीसरे धंधे को अब एक जगह समेट लिया गया है. भारत से जाकर विदेशों में की जाने वाली डिज़ाइनर शादियों में तो चौथा धंधा भी समेटने की पूरी कोशिश चल रही है. पर इसमें आस्था और विश्वास का मामला बड़ा प्रबल है. पब गोइंग सुकन्याओं और मॉम-डैड की सोच को पूरी तरह आउटडेटेड मानने वाले सुवरों को भी मैंने ज्योतिषियों के चक्कर लगाते देखा है. इसलिए नहीं कि उनकी शादी कितने दिन चलेगी, यह जानने के लिए कि उन दोनों का भाग्य आपस में जुड़ कर कैसा चलेगा. पता नहीं क्यों, इस मामले में वे भी अपने खानदानी ज्योतिषी जी की ही बात मानते हैं.

तो अब समझदार लोग डिज़ाइनर पैकेजों में ज्योतिषी और पुरोहित जी को शामिल नहीं कराते. होटल समूह ज़बर्दस्ती शामिल कर दें तो उनका ख़र्च भले उठा लें, पर पंडित जी को वे ले अपनी ही ओर से जाते हैं. इसलिए पंडित जी लोगों की किल्लत इस मौसम में बड़ी भयंकर हो जाती है. ऐसी जैसे इधर दो-तीन साल से पेट्रोल-गैस की चल रही है. यह किल्लत केवल शादियों के नाते ही नहीं होती है, असल में इसकी एक वजह चुनाव भी हैं. अब देखिए, इतने बड़े लोकतंत्र में सरकारें भी तो तरह-तरह की हैं. देश से लेकर प्रदेश और शहर और कसबे और यहां तक कि गांव की भी अपनी सरकार होती है. हर सरकार के अपने तौर-तरीक़े होते हैं और वह है चुनाव.
ज़ाहिर है, अब जो चुनाव लड़ेगा उसे अपने भविष्य की चिंता तो होगी ही और जिसे भी भविष्य की चिंता होती है, भारतीय परंपरा के मुताबिक वह कुछ और करने के बजाय ज्योतिषियों के आगे हाथ फैलाता है. तो ज्योतिषियों की व्यस्तता और बढ़ जाती है. कई बार तो बाबा लोग इतने व्यस्त होते हैं कि कुंडली या हाथ देखे बिना ही स्टोन या पूजा-पाठ बता देते हैं. समझना मुश्किल हो जाता है कि मौसम में ये धंधा है कि धंधे में ही मौसम है.

अभी हाल ही में मैंने संगीता जी के ज्योतिष से रिलेटेड ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ा. उन्होंने कहा है कि ‘गत्यात्मक ज्योतिष को किसी राजनीतिक पार्टी की कुंडली पर विश्वास नहीं है.’ मेरा तो दिमाग़ यह पढ़ते ही चकरा गया. एं ये क्या मामला है भाई! क्या राजनीतिक पार्टियों की कुंडलियां भी राजनेताओं के चरित्र जैसी होती हैं? लेकिन अगला वाक्य थोड़ा दिलासा देने वाला था- ‘क्‍योंकि ग्रह का प्रभाव पड़ने के लिए जिस चेतना की आवश्‍यकता होती है, वह राजनीतिक पार्टियों में नहीं हो सकती.’ इसका मतलब यही हुआ न कि वह नहीं मानतीं कि राजनीतिक पार्टियों में चेतना होती है.

अगर वास्तव में ऐसा है, तब तो ये गड़बड़ बात है. भला बताइए, देश की सारी सियासी पार्टियां दावे यही करती हैं कि वे पूरे देश की जनता को केवल राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक और आर्थिक रूप से भी चेतनाशील बना रही हैं. बेचारी जनता ही न मानना चाहे तो बात दीगर है, वरना दावा तो कुछ पार्टियों का यह भी है कि वे भारत की जनता को आध्यात्मिक रूप से भी चेतनाशील या जागरूक बना रही हैं. अब यह सवाल उठ सकता है कि जो ख़ुद ही चेतनाशील नहीं है वह किसी और को भला चेतनाशील तो क्या बनाएगा! ज़ाहिर है, चेतनाशील बनाने के नाम पर यह लगातार पूरे देश को अचेत करने पर तुला हुए हैं और अचेत ही किए जा रहे हैं.

लेकिन संगीता जी यहीं ठहर नहीं जातीं, वह आगे बढ़ती हैं. क्योंकि उन्हें देश के राजनीतिक भविष्य का कुछ न कुछ विश्लेषण तो करना ही है, चाहे वह हो या न हो. असल बात ये है कि अगर न करें तो राजनीतिक चेले लोग जीने ही नहीं देंगे. और राजनीतिक चेलों को तो छोड़िए, सबसे पहले तो मीडिया वाले ही जीना दुश्वार कर दें ऐसे ज्योतिषियों का, जो चुनाव पर कोई भविष्यवाणी न करें. आख़िर हमारी रोज़ी-रोटी कैसे चलेगी जी! जनता जनार्दन तो आजकल कुछ बताती नहीं है. फिर कैसे पता लगाया जाए कि सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा और अगर ये पता न किया जाए तो अपने सुधी पाठकों को बताया कैसे क्या जाए?

जब उन्हें पकड़ा जाता है तब समझदार ज्योतिषी वैसे ही कुछ नए फार्मुले निकाल लेते हैं, जैसे संगीता जी ने निकाल लिए. मसलन ये कि – ‘इसलिए उनके नेताओं की कुंडली में हम देश का राजनीतिक भविष्‍य तलाश करते हैं.’ अब इसका मतलब तो यही हुआ न जी कि नेताओं के भीतर चेतना होती है? पता नहीं संगीता जी ने कुछ खोजबीन की या ऐसे ही मान ली मौसम वैज्ञानिकों की तरह नेताओं के भीतर भी चेतना या बोले तो आत्मा होती है. मुझे लगता है कि उन्होंने मौसम वैज्ञानिकों वाला ही काम किया है. वैसे भी चौतरफ़ा व्यस्तता के इस दौर में ज्योतिषियों के पास इतना टाइम कहां होता है कि वे एक-एक व्यक्ति के एक-एक सवाल पर बेमतलब ही बर्बाद करें. वरना सही बताऊं तो मैं तो पिछले कई सालों से तलाश रहा हूं. मुझे आज तक किसी राजनेता में चेतना या आत्मा जैसी कोई चीज़ दिखी तो नहीं. फिर भी क्या पता होती ही हो! क्योंकि एक बार कोई राजनेता ही बता रहे थे कि वे अभी-अभी अपनी आत्मा स्विस बैंक में डिपॉज़िट करा के आ रहे हैं. इस चुनाव में एक नेताजी ने दावा किया है कि वे उसे लाने जा रहे हैं. पता नहीं किसने उनको बता दिया है कि अब वे पीएम होने जा रहे हैं. क्या पता किसी ज्योतिषी या तांत्रिक ने ही उनको इसका आश्वासन दिया हो. मैं सोच रहा हूं कि अगर वो पीएम बन गए और स्विस बैंक में जमा आत्माएं लेने चले गए तो आगे की राजनीति का क्या होगा?

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मुंबई में एनीमेशन पर महामेला अगले हफ़्ते

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 14, 2009

29 और 30 मई को इसका आयोजन दिल्ली में रामदा प्लाजा होटल में किया जाएगा
एनिमेशन, वीएफएक्स (विजुअल इफेक्ट्स) और गेमिंग पर भारत का सबसे बड़ा मेला सीजीटीईएक्पो (कंप्युटर ग्राफिक्स टेक्नोलाजी) 09 का आयोजन मुंबई के पोवई स्थित रेसिडेंस होटल और कन्वेंशन सेंटर में 23 और 24 मई को होने जा रहा है। इस आयोजन के साथ ही सीजीटीईएक्पो अपने दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस मेले में कंप्युटर ग्राफिक्स से संबंधित तकनीक और व्यवसाय के विभिन्न पहलुओं का प्रदर्शन किया जाएगा। साथ ही एनिमेशन उद्योग में कैरियर की तलाश करने वाले छात्रों को भी यहां उचित मार्गदर्शन प्रदान किया जाएगा।
सीजीटीईएक्पो 09 का आयोजन एनिमेशन, वीएफएक्स और गेमिंग पर भारत के सबसे बड़े कम्युनिटी पोर्टल सीजीटी तंत्रा द्वारा नाइन इंटरएक्टिव के तहत प्रबंधित विजुअल इफेक्ट्स एंड डिजिटल एशिया स्कूल आफ एनिमेशन के साथ मिलकर किया जा रहा है। इस मेले में एनिमेशन उद्योग को समग्र रूप से प्रस्तुत करने के लिए जाब फेयर,आर्ट गैलेरीज, मार्केट प्लेस, मास्टर क्लासेस, एडुकेशन फेयर, इंटरटेनमेंट और गेमिंग जोन, छात्र प्रतियोगिता, एक्सपो स्टेज प्रदर्शनी आदि का आयोजन किया जा रहा है। इस उद्योग से जुड़े व्यवसायी और पेशेवर एनिमेशन की नई तकनीक से लोगों को अवगत कराएंगे साथ ही छात्रों को सीधे उनके साथ रू-ब-रू होने का अवसर प्राप्त होगा। इस मेला का उद्देश्य नये विचारों का अदान प्रदान करते हुये सीखना, प्रेरित करना और आगे बढ़ना है।
इस मेले में भाग लेने वाली मशहूर तकनीकी इकाइयां हैं एनवीआईडीआईए, एचपी, एडाब, बिज एनिमेशन (आई), क्योस ग्रुप वी रे आदि। ये इकाइयां एनिमेशन उद्योग से संबंधित नई खोजों पर रोशनी डालेंगी। एनिमेशन, विजुअल इफेक्ट्स, और गेमिंग पर व्यापक शिक्षा मेले की मेजबानी सीजीटीएक्पो में फ्रेमबाक्स एनिमेशन, विजुअल इफेक्ट्स, डीएएसए, मनिपाल, डीएसके, सुपीनफोकाम, पिकासो, एआईजीए के साथ किया जाएगा, जो विविधता से भरे हुये इस उद्योग पर दर्शकों की जिज्ञासाओं को शांत करेंगे।
बिग एनिमेशन (आई) प्राइवेट लिमिटेड अपने हाल में रिलीज एनिमेटेड टीवी श्रृंखला लिटिल कृष्णा की गहन व्याख्या प्रस्तुत करेंगी। इसके तहत लिटिल कृष्णा से संबंधित विभिन्न पहलुओं की पड़ताल की जाएगी। इस श्रृंखला का निर्माण बिग एनिमेशन और बंगलोर स्थित इस्कान द्वारा अनुमोदित इंडियन हेरिटेज फाउंडेशन ने संयुक्त रुप से किया है।
इस मेले में कंप्युटर ग्राफिक्स में कैरियर की तलाश करने वाले लोगों को स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के प्रतिनिधियों से बातचीत करने का अवसर प्राप्त होगा, जो इन्हें कैरियर के संबंध में अवसरों की जानकारी प्रदान करेंगे।
गेम डेवलपर्स के लिए नासकाम आईजीडीसी सेमिनार सत्र का आजोजन कर रहा है और इस वर्ष गेमिंग जोन एक प्रमुख आकर्षण होगा। बेहतरीन कलाकारों की पहचान करने के लिए इस वर्ष से सीजीटीतंत्रा कम्युनिटी अवार्ड का आयोजन किया जा रहा है।
इस मेले में दि लार्ड आफ रिंग्स से प्रेरित 40 मिनट के स्वतंत्र फिल्म दि हंट फार गोलुम को दिखाया जाएगा।
रेसिडेंस होटल में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में बिग एनिमेशन (आई) प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी आशिष कुलकर्नी ने कहा कि एनिमेशन उद्योग को पूरी तरह से व्यवसायिक बनाने की जरूरत है। इस उद्योग में रोजगार के व्यापक अवसर उपलब्ध हैं। लोगों को इसके तरफ आकर्षित किया जाना चाहिये।
दि बांबे आर्ट सोसाइटी के प्रेसीडेंट विजय राउत ने कहा कि कला के नजरिये से यह एनिमेशन उद्योग अभी काफी पिछड़ा हुआ है। इसका मुख्य कारण यह है कि लोग इसे अभी कला के प्रारुप के तौर पर नहीं देखते हैं। इसे अभी स्वतंत्र कला का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है। लोगों की मानसिकता बदलने की जरूरत है। सरकार को चाहिये कि शैक्षणिक संस्थानों में इसकी विधिवत पढ़ाई शुरु करे ताकि छात्र इसकी तरफ आकर्षित हों और इसमें उन्हें एक उज्जवल भविष्य दिखाई दे।
एनविडिया के प्रोफेशनल बिजनेस सोल्युशन के प्रमुख प्रसाद फाड़के ने कहा कि एनिमेशन कला और तकनीक का संगम है। इसे दोनों नजरिये से समझा जाना चाहिये। इस अवसर पर प्राइम फोकस वल्र्ड के वाइस प्रेसीडेंड एजाज राशिद, फ्रेमबाक्स एनिमेशन के एमडी राजेश टुराकिया भी मौजूद थे।
मुंबई में सीजीटीएक्पो की सफलता का बाद 29 और 30 मई को इसका आयोजन दिल्ली में रामदा प्लाजा होटल में किया जाएगा।

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जॉर्ज़ ओरवेल, संसद और वाराह पुराण

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 13, 2009

एक ब्लॉगर बंधु हैं अशोक पांडे जी. उन्हें सुअरों से बेइंतहां प्यार हो गया है. इधर कुछ दिनों से वह लगातार सुअरों के पीछे ही पड़े हुए हैं. हुआ यह कि पहले तो उन्होंने अफगानिस्तान में मौजूद इकलौते सुअर की व्यथा कथा कही. यह बताया कि वहां सुअर नहीं पाए जाते और इसकी एक बड़ी वजह वहां तालिबानी शासन का होना रहा है. इसके बावजूद किसी ज़माने सोवियत संघ से बतौर उपहार एक सुअर वहां आ गया था. उस बेचारे को जगह मिली चिड़ियाघर में. पर इधर जबसे अमेरिका में स्वाइन फ्लू नामक बीमारी फैली है, उसे चिड़ियाघर के उस बाड़े से भी हटा दिया गया है, जहां वह कुछ अन्य जंतुओं के साथ रहता आया था. अब उस बेचारे को बिलकुल एक किनारे कर दिया गया है, एकदम अकेले. जैसे हमारे देश में रिटायर होने के बाद ईमानदार टाइप के सरकारी अफसरों को कर दिया जाता है.
कायदे से देखा जाए तो दोनों के अलग किए जाने का कारण भी समान ही है. संक्रमण का. अगर उसके फ्लू का संक्रमण साथ वाले दूसरे जानवरों को हो गया तो इससे चिड़ियाघर की व्यवस्था में कितनी गड़बड़ी फैलेगी इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं. ठीक इसी तरह सरकारी अफसरी के दौरान भी ईमानदारी के रोग से ग्रस्त रहे व्यक्ति को अगर इस फील्ड में आए नए रंगरूटों के साथ रख दिया गया और उन्हें कहीं उसका संक्रमण हो गया तो सोचिए कि व्यवस्था बेचारी का क्या होगा? वैसे सुअर जब झुंड में था तब भी यह सहज महसूस करता रहा होगा, इसमें मुझे संदेह है. क्योंकि इसे सुअरों के साथ तो रखा नहीं गया था. वहां इसके अलावा कोई और सुअर है ही नहीं, तो बेचारे को साथ के लिए और सुअर मिले तो कैसे? इसे अपनी बिरादरी के बाहर जाकर हिरनों और बकरियों के साथ चरना पड़ता था.
अब सच तो यह है कि ईमानदार टाइप के सरकारी अफसर भी बेचारे अपने आपको ज़िंदगी भर मिसफिट ही महसूस करते रहते हैं. उन्हें लगता ही नहीं कि वे अपनी बिरादरी के बीच हैं. बल्कि उनकी स्थिति तो और भी त्रासद है. क़ायदे से वे सरकारी अफसर होते हुए सरकारी अफसरों के ही बीच होते हैं, पर न तो बाक़ी के असली सरकारी अफसर उन्हें अपने बीच का मानते हैं और न वे बाक़ी को अपनी प्रजाति का मानते हैं. हालत यह होती है कि दोनों एक दूसरे को हेय नज़रिये, कुंठा, ग्लानि, अहंकार और जाने किन-किन भावनाओं से देखते हैं. पर चूंकि सरकारी अफसरी में ईमानदार नामक प्रजाति लुप्तप्राय है, इसलिए वे संत टाइप के हो जाते हैं. अकेलेपन के भय से. दूसरी तरफ़, असली अफसर भी कुछ बोलते नहीं हैं, अभी शायद तब तक कुछ बोलेंगे भी नहीं जब तक कि समाज में थोड़ी-बहुत नैतिकता बची रह गई है.
यक़ीन मानें, सुअरों से मैं यहां सरकारी अफसरों की कोई तुलना नहीं कर रहा हूं. अगर कोई अपने जीवन से इसका कोई साम्य देखे तो उसे यथार्थवादी कहानियों की तरह केवल संयोग ही माने. असल बात यह है कि उस सुअर की बात आते ही मुझे जॉर्ज़ ओरवेल याद आए और याद आई उनकी उपन्यासिका एनिमल फार्म. यह किताब आज भी भारत के राजनीतिक हलके में चर्चा का विषय है. ‘ऑल मेंन आर एनिमीज़. ऑल एनिमल्स आर कॉमरेड्स’ से शुरू हुई पशुमुक्ति की यह संघर्ष यात्रा ‘ऑल एनिमल्स आर इक्वल, बट सम एनिमल्स आर मोर इक्वल’ में कैसे बदल जाती है, यह ग़ौर किए जाने लायक है. इसे पढ़कर मुझे पहली बार पता चला कि सुअर दुनिया का सबसे समझदार प्राणी है. अब मुझे लगता है कि वह कम से कम उन दलों से जुड़े राजनेताओं से तो बेहतर और समझदार है ही, जहां आंतरिक लोकतंत्र की सोच भी किसी कुफ्र से कम नहीं है. बहरहाल इस बारे में मैं कुछ लिखता, इसके पहले ही अशोक जी ने जॉर्ज़ ओरवेल के बारे में पूरी जानकारी दे दी.
वैसे सुअर समझदार प्राणी है, यह बात भारतीय वांग्मय से भी साबित होती है. अपने यहां हज़ारों साल पहले एक पुराण लिखा गया है- वाराह पुराण. भगवान विष्णु का एक अवतार ही बताया जाता है – वराह. वाराह का अर्थ आप जानते ही हैं, अरे वही जिसे पश्तो में ख़ांनजीर, अंग्रेजी में पिग या स्वाइन तथा हिन्दी में सुअर या शूकर कहा जाता है. अफगानिस्तान में तो यह प्रतिबन्धित प्राणी है और हमारे यहां भी आजकल इसकी कोई इज़्ज़त नहीं है. पर भाई हमारी अपनी संस्कृति के हिसाब से देखें तो यह प्राणी है तो पवित्र.
अब मैंने ख़ुद तो वाराह पुराण पढ़ा नहीं. सोचा क्या पता कि मास्टर ने ही पढ़ा हो. उससे बात की तो उसने कहा, ‘यार तुम्हें बैठे-बिठाए वाराह पुराण की याद क्यों आ गई?’
ख़ैर मैंने उसे पूरी बात बताई. पर इसके पहले कि वह मेरा गम्भीर उद्देश्य समझ पाता उसने समाधान पेश कर दिया. क़रीब-क़रीब वैसे ही जैसे नामी-गिरामी डॉक्टर लोग मरीज़ के मर्ज को जाने बग़ैर ही दवाई का पर्चा थमा देते हैं. ‘अमां यार क्यों परेशान हो तुम एक सुअर को लेकर? आंय! बुला लो उसको यहीं. अभी नई लोकसभा बनने वाली है. जैसे इतने हैं, वैसे एक और रह लेगा. वैसे भी अभी पूरे देश में इनकी ही बहार है. अपने यहां तो इन्हें तुम चुनाव भर जहां चाहो वहीं देख सकते हो. हां, जीत जाने के बाद फिर सब एक ही बाड़े में सिमट कर रह जाते हैं.’
मास्टर तो अपनी वाली हांक कर चला गया. इधर मैं परेशान हूं. उसने भी वही ग़लती कर दी जो जॉर्ज ओरवेल ने की है. इतने पवित्र जंतु को भला कहां रखने के लिए कह गया बेवकूफ़. मैं उस सुअर के प्रति सचमुच सहानुभूति से भर उठा हूं. सोचिए, भला क्या वहां रह पाएगा वह? अगर उसे पता चला कि वह किन लोगों के साथ रह रहा है? जहां सभी किसी न किसी गिरोह के ज़रख़रीद हैं, जो अपने आका के फ़रमान के मुताबिक बड़े-बड़े मसलों पर हाथ उठाते और गिराते हैं, उसके ही अनुरूप बोलते, चुप रहते या हल्ला मचाते हैं और गिरोह का मुखिया पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही ख़ानदान से चलता रहता है और उस पर तुर्रा यह कि यह दुनिया का सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा लोकतंत्र है ……… ज़रा आप सोचिए, उस पर क्या गुज़रेगी.

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युवराज का संस्कार

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 11, 2009

महाराज का तो जो भी कुछ होना-जाना था, सो सब बीत-बिता गया. वह ज़माना और था. अब की तरह तब न तो नमकहराम जनता थी और न यह लोकतंत्र का टोटका ही आया था. अरे बाप राजगद्दी पर बैठा था, मां राजगद्दी पर बैठी थी, पुश्त दर पुश्त लोग राजगद्दी पर ही बैठते चले आए थे, तो वह कहां बैठते! यह भी कोई सोचने-समझने या करने लायक बात हुई? जिसका पूरा ख़ानदान राजगद्दी पर ही बैठता चला आया हो तो वह अब चटाई पर थोड़े बैठेगा! ज़ाहिर है, उसको भी बैठने के लिए राजगद्दी ही चाहिए. दूसरी किसी जगह उसकी तशरीफ़ भला टिकेगी भी कैसे? लेकिन इस नसूढ़े लोकतंत्र का क्या करें? और उससे भी ज़्यादा बड़ी मुसीबत तो है जनता. आख़िर उस जनता का क्या करें? कई बार तो महारानी का मन ये हुआ कि इस पूरी जनता को सड़क पर बिछवा के उसके सीने पर बुल्डोजर चलवा दें. जबसे लोकतंत्र नाम की चिड़िया ने इस इलाके में अपने पंख फड़फड़ाए हैं, जीना हराम हो गया. और तो और, जनता नाम की जो ये नामुराद शै है, इसका कोई ईमान-धरम भी नहीं है. आज इसके साथ तो कल उसके साथ. ज़रा सा शासन में किसी तरह की कोताही क्या हुई, इनकी भृकुटी तन जाती है. इसकी नज़र भी इतनी कोताह है कि क्या कहें! जो कुछ भी हो रहा है, हर बात के लिए ये सरकार को ही दोषी मान लेती है. स्कूलों की फीस बढ़ गई- सरकार दोषी, बिजली-पानी ग़ायब रहने लगे- सरकार दोषी, महंगाई बढ़ गई- सरकार दोषी, भ्रष्टाचार बढ़ गया- सरकार दोषी, बेकारी बढ़ गई-सरकार दोषी, यहां तक कि सीमा पार से आतंकवाद बढ़ गया- तो उसके लिए भी सरकार दोषी.
इसकी समझ में यह तो आता ही नहीं कि सरकार के पास कोई जादू की छड़ी थोड़े ही है, जो वह चलाए और सारी समस्याएं हल हो जाएं. और फिर सरकार कहां-कहां जाए और क्या-क्या देखे? अरे भाई महंगाई बढ़ गई है तो थोड़ा झेल लो. कोई ज़रूरी है कि जो चीज़ आज दस रुपये की है वह कल भी दस रुपये की ही बनी रहे. कहां तो एक ज़माना था कि तुम्हारे हिस्से सिर्फ़ कर्म करना था. फल पूरी तरह हमारे हाथ में था. हम दें या न दें, यह बिलकुल हमारी मर्ज़ी पर निर्भर था. फिर एक समय आया कि पूरे दिन जी तोड़ मेहनत करो तो जो कुछ भी दे दिया जाता था उसी में लोग संतुष्ट हो लेते थे. पेट भर जाए, इतने से ही इनके बाप-दादे प्रसन्न हो जाते थे.
ऐसा इस देश में सुना जाता था. वरना तो महारानी जिस देश से आई थीं, वहां तो मजदूरी देने जैसी कोई बात ही नहीं थी. मजदूर जैसा भी कुछ नहीं होता था. वहां तो सिर्फ़ ग़ुलाम होते थे. ये अलग बात है कि उनके पूर्वज कभी ग़ुलाम नहीं रहे और न कभी राजा ही रहे, पर उन्होंने सुना है. ग़ुलामों से पूरे दिन काम कराया जाता था और कोड़े लगाए जाते थे. रात में खाना सिर्फ़ इतना दिया जाता था कि वे ज़िन्दा रह सकें. क्योंकि अगर मर जाते तो अपना काम कैसे होता. और फिर वह पैसा भी नुकसान होता जो उन्हें ख़रीदने पर ख़र्च किया गया था. नया ग़ुलाम ख़रीदना पड़ता. और अगर उन्हें ज़्यादा खिला दिया जाता तो तय है कि वे आंख ही दिखाने लगते. इन दोनों अतियों से बचने का एक ही रास्ता था और वह यह कि साईं इतना दीजिए, जामे पेट भराय.
पर मामला उलट गया तब जब उसे इस पेट भराय से ज़्यादा दिया जाने लगा. इतना दिया जाने लगा कि ये खाने के बाद दुख-बिपत के लिए भी लेवें बचाय. तो अब लो भुगतो. यह ग़लती उनकी ससुराल में उनके पतिदेव के पूर्वजों ने किया था. जाने किस मजबूरी में. हालांकि उनसे पूर्व की पूर्व महारानी, यानी उनकी सासू मॉम ने, यह ग़लती सुधारने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी थी. पर वह पूरी तरह सुधार नहीं पाई थीं. उन दिनों निगोड़े विपक्षी बार-बार आड़े आ जाते थे. हालांकि विपक्ष के बहुत बड़े हिस्से को पालतू बनाने की प्रक्रिया भी उन्होंने शुरू कर दी थी. तो विपक्ष तो अब निपट गया, लेकिन ससुरी जनता ही बहुत बेहूदी हो गई. इतनी बेहूदी कि इसकी हिम्मत तो देखिए. यहां तक कि महारानी के लिए फ़ैसलों पर सवाल भी उठाने लगी है.
इसीलिए महारानी के हाथ में जब सत्ता की चाभी आई तो सबसे पहला काम उन्होंने यही किया कि उन सबको सत्ता से बिलकुल दूर ही कर दिया जिनकी पीठ में सात पुश्त पहले तक भी कभी रीढ़ की हड्डी पाई जाती थी. निबटा ही दिया महारानी ने उन्हें. यहां तक कि वज़ीरे-आज़म भी उन्होंने एक ग़ुलाम को बनाया और वह भी ऐसे ग़ुलाम को जो कभी यह सोच भी नहीं सकता था कि उसे कभी इस क़ाबिल भी समझा जा सकता है. वह ख़ुद ही अपने को इस क़ाबिल नहीं समझता था. पहले तो वह बहुत रोया-गिड़गिड़ाया कि महारानी यह आप क्या कर रही हैं? मुझ नाचीज़ को इतनी बेपनाह इज़्ज़त आप बख़्श रही हैं. मैं इसे ढो भी पाउंगा! अरे यह तो मेरे संभाले से भी नहीं संभलेगी.
कुछ परिजनों ने उसकी यह मुश्किल देख महारानी को सलाह भी दी कि मत करें आप ऐसा. कहीं नहीं ही संभाल पाया तो क्या होगा फिर? पर महारानी जानती थीं कि सत्ता में संभालने के लिए होता क्या है! और यह भी कि ऐसा ही आदमी तो उन्हें चाहिए जो सत्ता संभाले, पर उसमें इतना आत्मविश्वास कभी न आए कि वह सत्ता संभाल सकता है. जब कहा जाए कि कुर्सी पर बैठो तो वह हाथ जोड़ कर बैठ जाए और जब कहा जाए कि उठो तो कान पकड़ कर उठ भी जाए. ऐसा आदमी युवराज के रास्ते में कभी रोड़ा नहीं अटकाएगा. जब तक युवराज युवा होते हैं, तब तक राजगद्दी सुरक्षित रहेगी और चलती भी रहेगी. कहीं ग़लती से भी अगर किसी सचमुच के क़ाबिल आदमी को यहां लाकर बैठा दिया तो फिर तो मुसीबत हो जाएगी. वह क्या राजगद्दी सुरक्षित रखेगा हमारे युवराज के लिए? वह तो ख़ुद उस पर क़ाबिज होने की पूरी कोशिश करेगा.
आख़िरकार वज़ीरे-आज़म की कुर्सी का फ़ैसला हो गया. वहां उसे ही बैठा दिया गया जिसे महारानी ने सुपात्र समझा. और महारानी ने उसे कुर्सी पर बैठाने के बाद सबसे पहला काम यही किया कि जनता की भी रीढ़ की हड्डी का निबटारा करने का अभियान शुरू किया. इसके पहले चरण के तहत महंगाई इतनी बढ़ाई गई कि आलू भी लोगों को अनार लगने लगा. इसके बावजूद कुछ घरों में चूल्हे जलाने का पाप जारी रहा. तब चूल्हे जलाने का ईंधन अप्राप्य बना दिया गया. काम का हाल ऐसा किया गया कि लोगों की समझ में गीता का सार आ जाए. अरे काम मिल रहा है, यही क्या कम है! फल यानी मजदूरी की चाह का पाप क्यों करते हो? वैसे भी इस देश में पुरानी कहावत है – बैठे से बेगार भली. तो लो अब बेगार करो.
अब इस बात पर साली जनता बिदक जाए तो क्या किया जाए? पर हाल-हाल में महारानी को मालूम हुआ कि असल में ये जो जनता का बिदकना है उसके मूल में शिक्षा है. तुरंत महारानी ने सोच लिया कि लो अब पढ़ो नसूढ़ों. ऐसे पढ़ाउंगी कि सात जन्मो तक तुम तो क्या तुम्हारी सात पीढ़ियां भी पढ़ने का नाम तक न लें. बिना किसी साफ़ हक़्म के तालीम इतनी महंगी कर दी गई कि पहले से ही दाने-पाने की महंगाई से बेहाल जनता के लिए उसका बोझ उठाना संभव नहीं रह गया. सुनिश्चित कर दिया गया कि जनता राजनीतिक नौटंकी को सच समझती रहे. पर अब भी जनता युवराज को सीधे राजा मान लेने को तैयार नहीं थी. जाने कहां से उसके दिमाग़ में ये कीड़ कुलबुलाने लगा था कि उसका राजा उसके बीच से होना चाहिए. ऐसा जो उसके दुख-दर्द को समझे. महारानी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि ऐसा राजा वे कहां से लाएं? आख़िरकार राजनीतिक पंडितों की आपात बैठक बुलाई गई. पंडितों ने बड़ी देर तक विचार किया. बहस-मुबाहिसा भी हुआ, पर अंतत: कोई नतीजा नहीं निकला. थक-हार कर किसी ने सलाह दी कि ऐसे मामलों से निबटना तो अब केवल एक ही व्यक्ति के बूते की बात है और वह हैं राजपुरोहित. ख़ैर, शाही सवारी तुरंत तैयार करवाई गई और उसे रवाना भी कर दिया गया राजपुरोहित के राजकीय बंगले की ओर. महारानी ने स्वयं अपने सचल दूरभाष से राजपुरोहित का नंबर मिलाया:
‘हेलो’
‘जी, महारानी जी’ ‘प्रनाम पुरोहिट जी!’ ‘जी महारानी जी, आदेश करें.’
‘जी आडेश क्या पुरोहित जी मैं टो बश रिक्वेश्ट कर सकटी हूं जी आपशे.’ ‘हें-हें-हें…. ऐसा क्या है राजमाता. आप आदेश कर सकती हैं.’ ‘जी वो क्या है कि राजरठ आपके ड्वार पर पहुंचता ही होगा. यहां पहुंचिए टब बाटें होंगी.’
इतना कह कर महारानी ने फ़ोन काट दिया और बेचारे राजपुरोहित कंपकंपाती ठंड में राजमाता और उनकी कुलपरंपरा के प्रति नितांत देशज शब्दों में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए जल्दी-जल्दी जनमहल पहुंचने के लिए तैयार होने लगे. जी हां, राजमहल का यह नया नामकरण राजपुरोहित ने ही किया था. एक टोटके के तौर पर. शनिदेव के कोप से राजपरिवार को बचाने के लिए. उनका यह प्रयोग चल निकला था, लिहाजा राजपरिवार में उनकी पूछ बढ़ गई थी और उनकी हर राय क़ीमती मानी जाने लगी थी. ***************************** थोड़ी देर बाद राजपुरोहित महारानी के दरबार में थे. समस्या उन्हें बताई जा चुकी थी और यह भी कि कई सलाहें आ चुकी थीं. सभी महत्वपूर्ण विचारों पर लंबी चर्चा भी हो चुकी थी. पर इस लायक एक विचार भी नहीं पाया गया था जिस पर अमल किया जा सके और जनता को इस बात के लिए मजबूर किया जा सके कि वह युवराज को महाराज मान ले. वैसे जनता के सीने पर बुल्डोजर चलवाया जा सकता है, लेकिन फिर सवाल यह उठता है कि जब जनता ही नहीं रहेगी तो फिर युवराज राज कैसे करेंगे और किस पर करेंगे? फिर तो एक ही विकल्प बचता है कि राज करने के लिए जनता भी सात समुंदर पार से मंगाई जाए. पर उधर से जनता कैसे आएगी? वहां तो जनता की पहले से ही कमी है और दूसरे जो जनता है वह भी बेहद पेंचीदी टाइप की हो गई है. ऐसी कि उसे बात-बात पर राजकाज में मीनमेख निकालने की आदत सी हो गई है.
‘अब जनटा टो हमारे मायके से मंगाई नहीं जा सकती राजपुरोहिट जी और युवराज को अगर वहां भेजें टो शायद इन्हें किशी हेयर कटिंग शैलून में भी काम न मिले.’ राजमाता ने अपनी चिंता व्यक्त की, ‘राजा टो हम इनको यहीं का बना सकटे हैं. और वह भी मुश्किल लग रहा है अभी. टो प्लीज़ कोई रास्टा सुझाइए राजपुरोहिट जी.’
राजपुरोहित थोड़ी देर तो चिंतामग्न मुद्रा में बैठे रहे. फिर उन्होंने पंचांग निकाला. थोड़ी देर तक विचार करते रहे. इसके बाद उन्होंने युवराज की कुंडली मंगाने का अनुरोध महारानी से किया. जैसा कि ऐसे अवसर पर होना ही चाहिए, राजमाता ने इसके लिए किसी राजकर्मी को आदेश नहीं दिया. स्वयं और तुरंत निकाल कर ले आईं और बड़ी श्रद्धापूर्वक राजपुरोहित को सौंप दी. राजपुरोहित ने अपने मोटे चश्मे से कुछ देर तक बड़ी सूक्ष्मता से कुंडली का भी निरीक्षण किया. क़रीब-क़रीब वैसे ही जैसे कोई चार्टर्ड एकाउंटेंट निहारता है किसी बहीखाते को. और अचानक उसमें राहुदेव की स्थिति पर नज़र पड़ते ही उन्होंने ऐसे हुंकार भरी जैसे किसी पेंशनर की फाइल में मामूली सी गड़बड़ पाकर सरकारी बाबू भरते हैं. ‘फ़िलवक़्त यहां स्थिति राहुदेव की गड़बड़ है महारानी.’ ज़ोर से नाक सुड़कते हुए राजपुरोहित ने कहा.
‘टो इशके लिए क्या किए जाने की ज़रूरत है राजपुरोहिट’ राजमाता जानती हैं हैं कि भाग्य को भाग्य के भरोसे छोड़ देने वाले पुरोहित नहीं हैं राजपुरोहित. राजपरिवार का कुत्ता भी कह दे तो बैल का दूध भी निकाल कर दे सकते हैं वह. इसी कैन डू एप्रोच के नाते तो उन्हें यूनिवर्सिटी से उठाकर दरबार में लाया गया.
बहरहाल राजपुरोहित ने थोड़ी देर और लगाई. मोटी-मोटी पोथियों के पन्ने-दर-पन्ने देखते रहे और अंतत: एक निष्कर्ष पर पहुंचे. ‘उपाय थोड़ा कठिन है राजमाता, लेकिन करना तो होगा.’ ‘आप बटाइए. कठिन और आसान की चिंता मट करिए.’
‘है क्या कि युवराज की कुंडली में अबल हैं राहु और लोकतंत्र की कुंडली में प्रबल हैं राहु. तो अब युवराज की कुंडली में अबल राहु को सबल तो करना ही पड़ेगा.’ ’वह कैसे होगा?’ ’देखिए राजमाता, राहु वैसे तो तमोगुणी माने जाते हैं, लेकिन उनकी प्रसन्नता के लिए सरस्वती की पूजा ज़रूरी बताई गई है और सरस्वती की प्रसन्नता के लिए शास्त्रों में विधान है संस्कारों का. पुराने ज़माने में हमारे यहां केवल 16 संस्कार होते थे. उनमें से भी अब तो कुछ संस्कार होते ही नहीं हैं संस्कारों की तरह. कुछ आवेश में निबटा दिए जाते हैं. उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो अब आउटडेटेड हो गए हैं. और कुछ ऐसी भी बातें हैं जिन्हें अब संस्कारों में जोड़ लिया जाना चाहिए, पर अभी जोड़ी नहीं गई हैं.’ ‘हमारे लिए क्या आडेश है?’ राजमाता उनका लंबा-चौड़ा भाषण झेलने के लिए तैयार नहीं थीं.
‘जी!’ राजपुरोहित तुरंत मुद्दे पर आ गए, ‘बस युवराज का एक संस्कार कराना होगा.’ ‘कौन सा संस्कार?’ ‘राजनीतीकरण संस्कार.’
‘वह कैसे होगा?’ किसी भी मां तरह राजमाता ने भी अपनी चिंतामिश्रित जिज्ञासा ज़ाहिर की.
‘जैसे सभी संस्कार होते हैं, वैसे ही यह भी होगा. हर संस्कार के कुछ रीति-रिवाज हैं, कुछ रस्में हैं. इसकी भी हैं. और टोटके भी करने होंगे.’ उन्होंने कहा और फिर राजमाता की ज़रा आश्वस्तिजनक मुद्रा में देखते हुए उन्होंने कहा, ‘इसके रीति-रिवाज थोड़े कड़े हैं. पर उसका भी इंतज़ाम हो जाएगा. आप चिंता न करें.’
‘क्या रीटि-रिवाज हैं इशके?’ ‘वो क्या है कि संस्कार वैसे होते हैं सरस्वती की ही प्रसन्नता के लिए, लेकिन ये मामला लोकतंत्र और उसमें भी राजनीति का है न, तो उसमें ऐसा काम करना पड़ेगा जिससे राहु भी प्रसन्न हों. इसके लिए राजकुमार को जनता जनार्दन यानी दरिद्र नारायण के बीच जाना पड़ेगा.’ ‘ये डरिड्रनारैन क्या चीज़ होटा है?’ ‘राजमाता हमारे देश में जो दरिद्र लोग यानी पूअर पीपल हैं न, उन्हें भी हम भगवान का रूप मानते हैं. इसीलिए हम उन्हें दरिद्रनारायण कहते हैं. और लोकतंत्र में तो राजपाट का सुख ही उनकी सेवा से ही मिलता है. लिहाज़ा उनकी सेवा में युवराज को एक बार प्रस्तुत होना होगा. युवराज को यह जताना होगा कि वह भी उनके ही जैसे हैं और उनके दुख-दर्द को समझते हैं.’ ‘ओह! लेकिन कहीं शचमुच बनना टो नहीं होगा युवराज़ को उनके जैशा.’ ‘नहीं-नहीं. बनने की क्या ज़रूरत है. हमारी संस्कृति की तो सबसे बड़ी विशिष्टता ही यही है कि हम कथनी और करनी को कभी एक करके नहीं देखते. भला सोचिए आपके आदिपूर्वज बार-बार आग्रह करते रहे सच बोलने का, पर अगर ग़लती से भी उन्होंने कभी सच बोला होता तो क्या होता?’ राजपुरोहित ने उदाहरण देकर समझाया, ‘ये तो सिर्फ़ नाटक है. दस-बीस दिन चलेगा. फिर सब सामान्य. राजा तो राजा ही रहेगा.’ ‘टो इश्में युवराज को क्या-क्या करना होगा?’
‘युवराज को कुछ ग़रीबों के बीच जाना होगा. उनसे मिलना-जुलना होगा. कुछ उनके जैसा खाना होगा. उनके जैसे कुछ मेहनत के काम करने होंगे. बस यही और क्या?’ ‘उनके जैसे काम .. मतलब?’ शायद राजमाता समझ नहीं सकीं.
‘अरे जैसे कुदाल चलाना या बोझ ढोना .. बस यही तो, और क्या!’ ‘क्या बाट आप करते हैं राजपुरोहिट? युवराज यह सब कैसे कर सकेंगे?’
‘हो जाएगा राजमाता सब हो जाएगा. उनको कोई बहुत देर तक थोड़े यह सब करना होगा.’ यह दरबार के विशेष सलाहकार थे, जो कई बार राजपुरोहित की मुश्किलें भी हल किया करते थे, ‘सिर्फ़ एक बार कुदाल चलानी होगी और इतने में सारे अख़बार और टीवी वाले फोटो खींच लेंगे. फिर एक बार मिट्टी उठानी होगी और फिर सभी मीडिया वाले फोटो खींच लेंगे और छाप देंगे. दिखा देंगे. बन जाएगा अपना काम.’ ‘ओह!’ राजमाता अब विशेष सलाहकार से ही मुखातिब थीं, ‘टो डेख लिजिएगा. शब हम आप के ही भरोशे शोड़ रए हें.’
‘आप निश्चिंत रहें राजमाता!’ कहने के साथ ही विशेष सलाहकार ने पुरोहित की बनाई सामग्रीसूची वज़ीरे-आज़म को थमा दी थी. इसमें पूजा-पाठ की तमाम चीज़ों के अलावा चांदी की कुदाल एक अदद, सोने की गद्दीदार खांची एक अदद, ख़ास तरह का कैनवस शू एक जोड़ी .. आदि चीज़ें भी शामिल थीं.
उधर राजमाता अपने मायके फ़ोन भी मिला चुकी थीं. असल में साबुनों का वह ख़ास ब्रैंड वहीं मिलता है जिससे शरीर के मैल और कीटाणुओं के साथ-साथ मन के विषाणु भी धुल जाते हैं.

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