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Archive for the ‘शिक्षा व्यवस्था’ Category

उत्तर आधुनिक शिक्षा में मटुकवाद

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on August 23, 2010

हरिशंकर राढ़ी
(यह व्यंग्य समकालीन अभिव्यक्ति के जनवरी -मार्च २०१० अंक में प्रकाशित हुआ था । यहाँ सुविधा की दृष्टि दो किश्तों में दिया जायेगा । )
वाद किसी भी सभ्य एवं विकसित समाज की पहचान होता है, प्रथम अनिवार्यता है। वाद से ही विवाद होता है और विवाद से ऊर्जा मिलती है। विवाद काल में मनुष्य की सुसुप्त शक्तियां एवं ओज जागृत हो जाते हैं। विवाद से सामाजिक चेतना उत्पन्न होती है। लोग चर्चा में आते हैं। जो जितना बड़ा विवादक होता है, वह उतना ही सफल होता है।
आदमी जितना ही बौद्धिक होगा, उतना ही वाद होगा। जिस समाज में जितने ही वाद होंगे , वह उतना ही विकसित एवं सुशिक्षित माना जाएगा। वस्तुतः वाद का क्षेत्र अनन्त है, स्थाई है किन्तु साथ-साथ परिवर्तनशील भी है। इसका व्याप्ति क्षेत्र एवं कार्यक्षेत्र दोनों ही असीमित है। अब तो यह पूर्णतया भौमण्डलिक भी होने लगा है। इस पर तो एक सम्पूर्ण शोध की आवश्यकता है। कमी है तो बस केवल शुरुआत की। एक बार शुरुआत हो जाए तो देखा-देखी शोध ही शोध ! बुद्धि के क्षेत्र में अपने देश का शानी वैसे भी सदियों से कोई नहीं रहा है। अब जहां इतनी बुद्धि है वहाँ वाद तो होंगे ही। सच तो यह है कि यह देश ही वाद की वजह से जीवित है। जैसे-जैसे देश की आबादी बढ़ी , वाद का परिवार भी बढ ता गया और वाद-विवाद, प्रतिवाद,संवाद एवं परिवाद भी संतान रूप में इसके परिवार में सम्मिलित होते गए।
मुझे लगता है कि वादों की श्रृंखला मनुवाद से हुई होगी और जाकर मक्खनवाद पर समाप्त मान ली गई होगी। मनु की व्यवस्था के गतिशील होने का बाद तमाम तरह के वाद आते गए। द्वैतवाद-अद्वैतवाद, शैववाद -अशैव वाद के नाम पर सिरफुटौव्वल पहले के मनीषियों का मनपसन्द टाइमपास था। मध्यकाल तक आते-आते कर्मवाद और भाग्यवाद जोर पकड ने लगे। भाग्यवाद ने जोर मारा तो विदेशियों का आक्रमण एवं शासन हुआ। हमें शासन करने से भी छुटकारा मिला।होइ कोई नृप हमहिं का हानी! जैसे तैसे उनके शासन के बाद आजाद हुए तो पुनः भाग्यवाद का ही सम्बल मिला और आज भी उसी के सहारे अपना देश चल रहा है।
हम एक तरह के स्वाद के आदती नहीं हैं, अतः हमारा इससे भी ऊबना स्वाभाविक था। विकर्षण हो गया इससे।भाग्यवाद में एकता और समरसता होती है, अत्याचार सहने की क्षमता होती है। प्रतिक्रिया का कोई स्कोप ही नहीं होता। अतः देश के नेतृत्व को बेचैनी हुई। सोई जनता को जगाना परम आवश्यक हो गया। इतना बड़ा भाग्यवाद भी क्या कि आप मतदान के लिए न निकलें! चूँकि वाद के बिना समाज का कोई अस्तित्व ही नहीं होता इसलिए पहले भाग्यवाद का स्थानापन्न लाना जरूरी था। काफी सोचविचार के बाद सम्प्रदायवाद,जातिवाद, क्षेत्रवाद एवं भाषावाद के चार विकल्प उपलब्ध कराए गए। परिणाम सामने है- आज लोकतंत्र अपने चरम उत्कर्ष पर है।
अपने यहां की वाद की विविधता का कोई जवाब तो है ही नहीं! कौन सा वाद है जो अपने यहाँ न हो! समाज के हर वर्ग के लिए यहाँ वाद की व्यवस्था की गई है क्योंकि वाद के बगैर मनुष्य मनुष्य की श्रेणी में आता ही नहीं। विविधता को एकता की कड़ी में पिरोया गया है।एक मनीषी द्वैतवाद-अद्वैतवाद के विकास में लगे तो दूसरे संभोगवाद में।पुरानी हर चीज क्लॉसिकल होती है, आप इस तथ्य को नकार नहीं सकते। अपना देश तो हर मामले में क्लॉसिकल रहा ही है, अगर आप जरा सा भी देशभक्त होंगे तो इस बात का विराध करेंगे ही नहीं।पाश्चात्य देश अब जाकर इक्कीसवीं शताब्दी में भोगवाद का नारा दे पा रहे हैं। आज वे ब्ल्यू फिल्मों एवं पोर्न साइटों के सहारे आदमी को थोडा सा शारीरिक सुख प्रदान करने का दावा कर रहे हैं। स्त्री शरीर के कुछ उल्टे-पुल्टे तरीके दिखाकर आप एडवांस बन रहे हैं।इन्हें कौन समझाए कि भोगवाद में हमारे जैसा क्लॉसिकल होना आपके बूते का नहीं ! फिल्मों की बात छोडि ए, जब आपको अ अनार भी नहीं आता था तो हमारे यहां आचार्य जी ने चौरासी आसनों का शास्त्रीय अविष्कार कर दिया था। ऐसे-ऐसे आसन कि भोग करो तो योग अपने आप ही हो जाए! कुछ में तो सर्कस की सी स्थिति बन जाए या फिर हड्डियां चटक जाएं। फिर भी आप हमें पिछड़ा समझते हैं? लानत है आप पर!

वाद परम्परा मनुवाद से शुरू होकर मक्खनवाद पर ठहर सी गई थी। निराशावादियों को लगा कि देश सो गया है, देश की नाक की किसी को चिन्ता ही नहीं। शिक्षा का पतन हो गया होगा और शोध बन्द हो गए होंगे। अध्ययन के नए तरीके और अध्ययन में नए वाद कि लिए बुद्धिजीवी आगे आ ही नहीं रहा होगा। इससे पहले कि लोग अन्तिम रूप से निराश हों, देश की शिक्षा पद्धति में एक अभूतपूर्व वाद पैदा ही हो गया और वह था मटुकवाद।
परम्परा यह है कि किसी भी वाद का नामकरण उसके प्रवर्तक के नाम पर ही आधारित होता है जैसे कि मार्क्सवाद, माओवाद , नक्सलवाद या फिर मनुवाद।इस हिसाब से नव आविष्कृत वाद का नाम भी इसके आविष्कारक प्रो० मटुकनाथ के नाम पर न होना उस महात्मा के साथ घोर अन्याय होगा।
इन प्रोफेसर साहब का आविर्भाव देश की एक अनन्य उपजाऊ धरती पर हुआ। वह हिस्सा ज्ञान के क्षेत्र में तबसे अग्रगण्य था जब शताब्दियाँ भी शुरू नहीं हुई थीं।जब दुनिया का नक्शा भी नहीं बना था तो वहां विश्व विद्यालय था।कई यात्री तो ज्ञान की लालच में उत्तर से पैदल-पैदल ही पहाड़ पार करके आ गए थे और हैरत की बात यह कि बिना लुटे-पिटे ही वापस भी चले गए थे। अब, जब शिक्षा बिलकुल नीरस और उद्देश्यहीन हो गई तो एक बार फिर वही धरती आगे आई और एक रोचक एवं अत्यन्त उपयोगी वाद का प्रादुर्भाव हुआ।
मटुकवाद शिक्षा के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व क्रान्ति है। पहली बार ऐसा कुछ हुआ कि किसी प्राध्यापक ने अपने बलबूते कुछ कर दिखाया और एक अत्यन्त व्यावहारिक ज्ञान को पाठ्‌यक्रम की विषय वस्तु बनाया । हकीकत तो यह है कि इसके पहले महाविद्यालय और विश्व विद्यालय स्तर तक अनुपयोगी और अव्यावहारिक सिद्धान्त पढाये जाते रहे हैं। अरस्तु -आइंस्टाइन से लेकर लेनिन- लोहिया के सिद्धान्तों का इन्ट्रावेनस इंजेक्शन ही ठोंका जाता रहा है अब तक जवानी से पीडि त बेचारे छात्र-छात्राओं को! किसी ने इनकी प्राकृतिक आवश्यकताओं को समझने की कोशिश ही नहीं की, जैसे कि खाने-पीने और पढ ने-लिखने के अलावा इनकी और कोई काम ही नहीं हो!

इससे पहले कि मटुकवाद की महत्ता पर कुछ प्रकाश डाला जाए,इसकी परिभाषा समझ लेना जरूरी है।जब कोई अध्यापक या प्राध्यापक किशोरावस्था पार करती अपनी ही किसी लावण्यमयी शिष्या को प्यार का ऐसा पाठ पढ़ा दे कि वह उस अध्यापक या प्राध्यापक पर ही मर मिटे या विवाह बंधन में बंधने को अड जाए तो इसे मटुकवाद कहते हैं।स्मरण रहे कि यहां छात्रा एवं प्राध्यापक की उम्र में कम से कम बीस वर्ष का अन्तर होना आवश्यक है।यदि किसी छात्रा का आकर्षण – समर्पण किसी युवा या अविवाहित प्राध्यापक के प्रति है तो इसे मटुकवाद नहीं माना जाएगा। इसे चिरातनकाल से ही स्वाभाविकवाद माना जाता रहा है।पूर्ण मटुकवाद तभी होता है जब प्राध्यापक विवाहित हो और उसके अपनी संतान छात्रा के समवयस्क हों।
इस परिभाषा पर विद्वान एकमत नहीं होंगे, यह मैं समझता हूँ । जो एकमत हो जाए वह विद्वान हो ही नहीं सकता। इस परिभाषा में बहुत सारी खोट ढूंढी जांएगी और अपवादों का हवाला दिया जाएगा। इसीलिए यहाँ परिभाषा को उद्धरण चिह्‌न के अन्दर नहीं रखा गया है। केवल लक्षण ही बताया गया है।ऐसा नहीं है कि मटुकवाद सर्वथा नई धारणा या घटना है। ऐसा भी नहीं है कि प्राध्यापकगण इससे पूर्व अपनी शिष्या के नागपाश में नहीं बंधे या शारीरिक संवाद से अनभिज्ञ रहे,परन्तु वे वाद का पेटेन्ट अपने नाम से नहीं करा सके।ठीक उसी प्रकार जैसे कि हल्दी,चंदन एवं नीम का ओषधीय प्रयोग अपने देश में सदियों से होता रहा किन्तु पेटेन्ट तो अमेरिका ने ले लिया!
(शेष अगली किश्त में )

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डर के बिना कुछ न करेंगे जी…!

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 6, 2009

 

इलाहाबाद में आजकल पब्लिक स्कूलों में बढ़ी हुई फीस के ख़िलाफ अभिभावक सड़कों पर उतर आए हैं। वकील, पत्रकार, व्यापारी, सरकारी कर्मचारी आदि सभी इस भारी फीस वृद्धि से उत्तेजित हैं। रोषपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। इसे लेकर कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने लगी तो जिलाधिकारी को स्कूल प्रबन्धकों के साथ समझौता वार्ता करनी पड़ी है। नतीजा चाहे जो रहे लेकिन इस प्रकरण ने मन में कुछ मौलिक सवाल फिर से उठा दिए हैं।जिलाधिकारी को ज्ञापन

भारतीय संविधान में ८६वें संशोधन(२००२) द्वारा प्राथमिक शिक्षा को अब मौलिक अधिकारों में सम्मिलित कर लिया गया है। मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित अध्याय-३ में जोड़े गये अनुच्छेद २१-क में उल्लिखित है कि-

“राज्य ऐसी रीति से जैसा कि विधि बनाकर निर्धारित करे, छः वर्ष की आयु से चौदह वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करेगा।”

नागरिकों के लिए निर्धारित मौलिक कर्तव्यों की सूची, अनु.५१-क, में भी यह कर्तव्य जोड़ा गया है कि-

५१-क(ट): छः वर्ष की आयु से १४ वर्ष की आयु के बच्चों के माता पिता और प्रतिपाल्य के संरक्षक, जैसा मामला हो, उन्हें शिक्षा के अवसर प्रदान करें।”

शिक्षा को वास्तविक मौलिक अधिकार बनाने की राह में पहला कदम आजादी के पचपन साल बाद उठाकर हम संविधान में एक धारा बना सके हैं। इसका अनुपालन अभी कोसों दूर है। अभी हमारे समाज में शिक्षा व्यवस्था दो फाँट में बँटी हुई है। बल्कि दो ध्रुवों पर केन्द्रित हो गयी लगती है। पहला सरका्री और दूसरा प्राइवेट। इन दोनों क्षेत्रों में चल रही शिक्षण संस्थाओं पर गौर करें तो इनके बीच जो अन्तर दिखायी देता है उसकी व्याख्या बहुत कठिन जान पड़ती है।

 

सरकारी संस्थाओं में फीस कम ली जाती है। आयोग या चयन बोर्ड से या अन्य प्रकार की प्रतियोगी परीक्षा से चयनित योग्य अभ्यर्थियों को शिक्षण और प्रशासनिक नियन्त्रण  के कार्य के लिए योजित किया जाता है। सरकारी दर से मोटी तन्ख्वाह दी जाती है। सेवा सम्बन्धी अनेक सुविधाएं, छुट्टियाँ और परीक्षा आदि के कार्यों के लिए अतिरिक्त पारिश्रमिक। यह सब इसलिए कि सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी के इस काम में कोई कमी न रह जाय। शिक्षादान को बहुत बड़ा पुण्य भी माना जाता है। सरकारी वेतन पाते हुए यदि यह पुण्य कमाने का अवसर मिले तो क्या कहने? ऐसे ढाँचे में पलने वाली शिक्षा व्यवस्था तो बेहतरीन परिणाम वाली होनी चाहिए। लेकिन हम सभी जानते हैं कि वस्तविक स्थिति इसके विपरीत है। सच्चाई यह है कि जिस अध्यापक की जितनी मोटी तनख्वाह है उसके शिक्षण के घण्टे उतने ही कम हैं। गुणवत्ता की दुहाई देने वालों को पहले ही बता दूँ कि बड़े से बड़ा प्रोफेसर भी यदि कक्षा में जाएगा ही नहीं तो उसकी गुणवता क्या खाक जाएगी बच्चों के भेजे में।

 

प्राइवेट स्कूलों का नजारा बिल्कुल उल्टा है। फीस अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा। प्रबन्ध तन्त्र द्वारा अपने व्यावसायिक हितों (कम लागत अधिक प्राप्ति) की मांग के अनुसार शिक्षकों की नियुक्तियाँ की जाती हैं। गुणवत्ता की कसौटी काफी बाद में आती है। परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों को सधाने के बाद सरकारी नौकरी पाने  में असफल रहे मजबूर टाइप के लोगों को औने-पौने दाम पर रख लिया जाता है। दस से बारह तक भी काम के घण्टे हो सकते हैं। सुविधा के नाम पर कोई छुट्टी नहीं, एल.डब्ल्यू.पी. की मजबूरी साथ में, शिक्षण के अतिरिक्त विद्यालय के दूसरे काम मुफ़्त में, नाच-गाना। लगभग बन्धुआ मजदूर जैसा काम।

 

इन दोनो मॉडल्स में जो अन्तर है उसके बावजूद एक अभिभावक की पसन्द का पैटर्न प्रतिलोमात्मक है। कम से कम प्राथमिक स्तर की शिक्षा का तो यही हाल है। जो सक्षम हैं वे अपने बच्चों का प्रवेश प्राइवेट कॉन्वेन्ट स्कूलों में ही कराते हैं। थोड़े कम सक्षम लोग भी गली-गली खुले हुए ‘इंगलिश मीडियम मॉन्टेसरी/ नर्सरी’ में जाना चाहेंगे। सरकारी स्कूल में जाने वाले तो वे भूखे-नंगे हैं जिन्हें दोपहर का मुफ़्त भोजन चाहिए। सरकारी वजीफा चाहिए जिससे मजदूर बाप अपनी बीड़ी सुलगा सके। मुफ़्त की किताबें चाहिए जिससे उसकी माँ चूल्हे में आग पकड़ा सके, स्कूल ड्रेस चाहिए जिससे वह अपना तन ढँक सके। नियन्त्रक अधिकारियों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक का ध्यान भी इन्हीं विषयों तक अटक कर रह जाता है। पठन-पाठन का मौलिक कार्य मीलों पीछे छूट जाता है। बहुत विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है क्योंकि सब जानते हैं कि सरकारी पाठशालाओं की हालत कैसी है।

 

मेरा प्रश्न यह है कि इसी समाज में पला-बढ़ा वही व्यक्ति सरकारी महकमें में जाकर बेहतर परिस्थियाँ पाने के बावजूद अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन क्यों हो जाता है। नौकरी की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होते ही हरामखोरी उसके सिर पर क्यों चढ़ जाती है? बच्चों को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी जिसके सिर पर है वह स्वयं क्यों अनैतिक हो जाता है? जिसे बच्चों में सदाचार और अनुशासन का बीज बोना है, वे स्वयं अनुशासनहीन और कदाचारी कैसे हो जाते हैं? जो व्यक्ति प्राइवेट संस्थानों में सिर झुकाए कड़ी मेहनत करने के बाद तुच्छ वेतन स्वीकार करते हुए उससे बड़ी धनराशि की रसीद तक साइन कर देते हैं वही सरकारी लाइसेन्स मिलते ही आये दिन हड़ताल और प्रदर्शन करके अधिक वेतन और सुविधाओं की मांग करते रहते हैं। ऐसा क्यों है?

 

यहाँ मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा हूँ। लेकिन सामान्य तौर पर जो दिखता है उससे मेरा निष्कर्ष यह है कि हमारा समाज ऐसे लोगों से ही भरा पड़ा है जिनके भीतर स्वार्थ, मक्कारी और मुफ़्तखोरी की प्रवृत्ति प्रधान है। अकर्मण्यता, आलस्य और अन्धेरगर्दी की फितरत स्वाभाविक है। कदाचित्‌ मनुष्य प्रकृति से ही ऐसा है। यह हालत केवल शिक्षा विभाग की नहीं है बल्कि सर्वत्र व्याप्त है। यह भी कि कायदे का काम करने के पीछे केवल एक ही शक्ति काम करती है, वह है “भय”।

 

केवल भय ही एक ऐसा मन्त्र है जिससे मनुष्य नामक जानवर को सही रास्ते पर चलाया जा सकता है। शारीरिक प्रताड़ना का भय हो, या सामाजिक प्रतिष्ठा का भय, नौकरी जाने का भय हो या नौकरी न मिल पाने का भय, रोटी छिन जाने का भय हो या भूखों मर जाने का भय; यदि कुछ अच्छा काम होता दिख रहा है तो सिर्फ़ इसी एक भय-तत्व के कारण। जहाँ इस तत्व की उपस्थिति नहीं है वहाँ अराजकता का बोलबाला ही रहने वाला है। आज ड्ण्डे की शक्ति ही कारगर रह गयी लगती है।

 

जय हो “भय” की…!!!

(सिद्धार्थ)

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