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हमारा और गिल साहब का हाकी प्रेम

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on March 18, 2008

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हाकी के  खेल से मुझे बहुत प्यार है. करीब-करीब उतना ही जितना गिल साहब को या शाहरुख खान को. यह दावा तो मै नही कर सकता कि तभी से जब से इन दोनो स्टारो को है, पर इतना तो मै दावे के साथ कह ही सकता हू मुझे भी हाकी के उसी तत्व से प्रेम है, जिससे इन दोनो महानुभावो का है. हाकी के प्रति सम्वेदनशील हर व्यक्ति का प्रेम सही पूछिए तो हाकी के उसी तत्व से है. यह तत्व है हाकी स्टिक.

जी हा! यकीन मानिए, हाकी के खेल से जुडे मूढ्मति लोगो ने इस तत्व की बडी उपेक्षा की है. यह बात केवल हिन्दुस्तानी हाकी चिंतको के साथ हो, ऐसा भी नही है. अव्वल तो उपेक्षा का यह आरोप दुनिया भर के हाकीवादियो पर वैसे ही यूनिफार्मली सही है जैसे दुनिया भर के राजनेताओ पर चरित्रवान होने की बात. क्रिकेट के लोगो ने इस बात को समझा और नतीजा सबके सामने है. उन्होने बाल से ज्यादा बैट पर ध्यान दिया. उनकी यह रीति हमेशा से चली आ रही है. आज भारत और पाकिस्तान से लेकर आस्ट्रेलिया तक क्रिकेट रनो और ओवरो के लिए उतना नही जाना जाता जितना विवादो के लिए.  वैसे भी खेल के लिए कोई कितने दिनो के लिए जाना जा सकता है? ज्यादा से ज्यादा उतने दिन जब तक खेल चले. इसके बाद? कोई जिक्र तक नही करता.

तो साल भर चर्चा मे बने रहने के लिए तो कोई न कोई एक्स्ट्रा एफर्ट चाहिए न! यह एक्स्ट्रा एफर्ट आखिर कैसे किया जाए? अब या तो सिनेमा की तरह पूरे साल कुछ न कुछ प्यार-व्यार के झूठे किस्से ही चलाए जाए या फिर विवाद गरमाए जाए. हाकी वालो के प्यार-व्यार के किस्से को कोई बहुत तर्जीह इस्लिए नही देगा क्योंकि इनकी भरती सिनेमा वालो की तरह रंग-रूप के आधार पर होती नही. जाहिर है, इनको सुन्दरता के आधार पर प्यार वाला ग्रेस मिलने से रहा. मिलना होता तो लालू जी ने पी टी उषा के बजाय बिहार की सड्को को हेमामालिनी के गाल जैसे बनाने की बात नही की होती. तो जाहिर है कि हाकी को चर्चा विवादो से ही मिलनी है और विवाद पैदा होते है डंडे से. डंडा यानी स्टिक.                

दरसल हाकी से मेरा पहला परिचय भी इसी रूप मे हुआ था. हुआ यह कि स्कूल के दिनो मे कुछ मित्रो से विवाद हुआ. उन दिनो स्कूलो मे कट्टा आदि कोर्स मे शामिल नही थे. पर हाकी थी. लिहाजा अपने बचाव के लिए मै हाकी लेकर  गया और फिर मुझे रन बनाना नही पडा. मैने अपने प्रतिस्पर्धी गुट से कई रन बनवाए.निश्चित रूप से गिल साहब का परिचय भी हाकी से इसी तरह हुआ होगा.  इसका सफल प्रयोग उन्होने पंजाब मे किया. इस सम्बन्ध मे किसी से कोई प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नही है.

स्टिक यानी डंडे का एक मतलब लाठी भी होता है. लाठी हमारी संस्क्रिति का उतना ही अभिन्न अंग है जितना कि भ्रष्टाचार. बालको का उपनयन यानी जनेऊ होता है तो तमाम संस्कारो के बाद उन्हे दंड यानी लाठी ही थमाई जाती है. वे लाठी लेकर विद्या ग्रहण करने निकलते है. विद्यालय मे गुरुजन भी लाठी रखते है. सरकार मे पुलिस से लेकर बाबू और अफसर तक सभी किसी न किसी तरह की लाठी जरूर रखते है. उसी लाठी से वे हमेशा यह साबित करते रहते है कि भैंस उनकी है. इसीलिए जिसकी लाठी उसकी भैंस हमारे देश का सर्वमन्य सिद्धांत और कानून है.

गिल साहब इसका प्रयोग हर तरह से कर चुके है. पंजाब मे उन्होने लाठी के ही दम पर साबित किय था कि यह हमारा है.  लाठी से ही उन्होने पंजाब से आतंकवाद खत्म किया था. गिल साहब दो ही बातो के लिए तो जाने जाते है. एक लाठी चलाने और दूसरा खत्म करने के लिए. जिस दिन उन्हे भारतीय हाकी संघ का सरपरस्त बनाया गया, अपन तो उसी दिन आश्वस्त हो गए थे. हाकी के भविष्य की चिंता हमने उसी दिन से छोड दी. इस्के बाद अगर किसी ने चिंता जारी रखी तो उसे हमने वही समझा जो हमारे भारत के नेता लोग जनता को समझते है. मै गिल साहब की प्रतिभा को जानता हू, पर क्या बताऊ मेरे हाथ मे कोई जोरदार लाठी नही है. वरना मै गिल साहब भारतीय राजनीति का सरपरस्त बनाता. आप अन्दाजा लगा सकते है कि फिर क्या होता!

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खेल भावना की ऐतिहासिक मजबूरी

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on January 16, 2008

केशव
सिडनी में हुए कोलाहल के बाद आज से पर्थ टेस्ट शुरू हो गया और पहली इनिंग्स में भारत ने ठीक प्रदर्शन भी कर दिया. अब चूँकि सबका गुस्सा थोडे काबू में आ गया है तो चलिए ज़रा कुछ कठोर और कटु सत्यों पर बात की जाए. चाचा नेहरू का मैं प्रशंसक हूँ और उनकी तमाम बातों में मुझे काफी सार भी नज़र आता है, पर पहले एशियन खेलों के उद्घाटन पर उन्होने एक लाइन कही थी उससे मैं कतई इत्तेफाक नही रखता. उनका कहना था कि खेल को जीत या हार के तराजू में तौलने के बजाये खेल की भावना से खेला जाना चाहिए. मेरा मानना कुछ और है. जिन्हें मानव इतिहास और मानव के विकास कि ज्यादा जानकारी नही है वे ऐसी बातें करें तो समझ में आता है. ये बात काबिले गौर है कि संस्कृति के विकास के बाद मनुष्य ने अपने अन्दर छिपी आदिम आक्रामकता को संभ्रांत तरीके से प्रदर्शित करने के लिए खेल ईजाद किये. लेकिन नियम और कायदों की आड़ खड़ी करने के बावजूद ये बात जल्दी ही साफ हो गई कि जैसे ही खेल कि गहमा गहमी बढ़ती तो आदमी के अन्दर छिपा हुआ जानवर अपने पूरे जंगली स्वरूप में बाहर आ जाता. ये स्थिति रोमन काल से ही चली आ रही है और मानव के विकास के १० लाख साल के इतिहास में सभ्यता का इतिहास चूँकि कुल १० या १५ हजार साल पुराना है इसलिए आभिजत्य का असर उसके व्यक्तित्व पर उतना ही गहरा है जितना शरीर पर खाल की तह. ऐसे में खेल को खेल की भावना से खेलने वाला आदर्श पूजनीय तो है पर अनुकरणीय वो कम से कम १० या २० हजार साल बाद ही हो पाएगा.

आस्ट्रलियाई टीम इस ऐतिहासिक मजबूरी को समझती है और बिना किसी शर्म के अपने अन्दर मौजूद जानवर को बेलगाम करती है ताकि वो जीत सके. वो जीत के मनोविज्ञान को भी समझते हैं और ये जानते हैं कि इतिहास और रेकॉर्ड हमेशा विजेता ही लिखते हैं और उनके वंशज ही उसे पढ़ पाते हैं. हारा हुआ आदमी या जाति या तो खलनायक होती है या बेचारी जिसमें कुछ एक खूबियाँ थीं पर वो इतनी बेहतर नही थी कि खुद इतिहास लिख सके. हममें इस समझ की कमी है आस्ट्रेलिया ने सिडनी टेस्ट नही जीता है बल्कि एक सोच की ओर इशारा किया है कि खेल में जीतने के लिए हुनर के साथ-साथ आदिम आक्रामकता भी बेहद ज़रूरी है. सौरव गांगुली ने सिडनी टेस्ट के बाद एक इंटरव्यू में कहा था कि आस्ट्रेलिया कि टीम जीतने के लिए उतावली थी, इसिलिये शायद वो इतने मैंच जीतती है.
आज भी हमारी रगों में अपने आदिम पूर्वजों का ही खून दौड़ता है खेल एक प्रतिस्पर्धा है और जैसे ही कोई मुक़ाबला शुरू होता है तो हमारी आदिम प्रकृति उभर कर सामने आती है और हमारा तन मन उसे हार या जीत के मुक़ाबले कि तरह देखने लगता है. जो व्यक्ति आदर्श या संस्कृति की आड़ में इस नैसर्गिक प्रकृति को पूरी तरह उभरने से रोकता है वो जीत नही सकता. खेल एक युद्ध है जो लड़ने से पहले ही मन ही मन जीत लिया जाता है. विजेता हमेशा जीत का लक्ष्य मन में रख कर खेलता है और पराजित हमेशा हार के खौफ के साथ मैदान में उतरता है. आस्ट्रेलिया और भारत में काबलियत का उतना फर्क नही है जितना कि इस मानसिकता का. जिस दिन हम भी विजय का लक्ष्य रखेंगे और जीत से न तो झेपेंगे और न ही उसके मिलने पर ग्लानी या अपराध बोध से भर जाएँगे उस दिन हमारी हार का सिलसिला ख़त्म हो जाएगा.

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