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Archive for the ‘राजनीति’ Category

ममता का अपना ही सर्वे कह रहा- अलविदा दीदी

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on September 8, 2020

अवनीश पी.एन. शर्मा

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने राजनीतिक कंसल्टेंट प्रशांत किशोर की कंपनी इंडियन पोलिटिकल एक्शन कमेटी (I-PAC) को राज्य में राजनीतिक सर्वे का काम सौंपा था। इस साल मार्च से जुलाई तक 6 महीने तक किए गए इस सर्वे के अनुसार ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार के प्रति राज्य के मतदाताओं में भीषण नाराजगी है। तृणमूल के एमएलए उच्चतम स्तर की एंटी-इनकंबेंसी झेल रहे हैं और सर्वे साफ कहता है कि ऐसे में पश्चिम बंगाल में तृणमूल सरकार बना पाने की स्थिति नहीं रहेगी। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव अगले साल अप्रैल-मई के बीच होने हैं।

प्रशान्त किशोर की कंपनी ने पूरे राज्य की सभी 294 विधानसभा सीटों पर तीन स्तरीय यानी तीन बार यह जमीनी आकलन किया। पहला सर्वेक्षण इसी साल मार्च में कोरोना के चलते हुए पहले लाकडाउन के ठीक पहले किया गया। दूसरा सर्वे जून के महीने में तो अंतिम सर्वे अगस्त के तीसरे हफ्ते में किया गया।

West Bengal: About West Bengal | Veethi | India west, West bengal, Bengal

जमीनी रिपोर्ट्स कहते हैं कि जो तृणमूल मार्च के पहले सर्वे में विधानसभा की 110 सीटों पर अच्छा कर रही थी, वह अब तीसरे दौर के आकलन में मात्र 78 सीटों पर बेहतर कर पाने की स्थिति में है। यहां ध्यान रहे साल 2016 के राज्य विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी की तृणमूल ने 211 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

आई-पीएसी अपने अगस्त के सर्वे के बाद अपने जमीनी आकलन में आगे कहता है कि 100 ऐसी सीटें हैं जो तृणमूल के लिए कठिनतम हैं तो बाकी 116 सीटों पर ममता की पार्टी के लिए कड़ा संघर्ष है और वहां तृणमूल के लिए जीत की संभावना का स्तर 50:50 यानी आधा-आधा ही है। पश्चिम बंगाल विधानसभा में आधी संख्या 148 सीटों की बैठती है।

मार्च में किए गए पहले सर्वे में प्रशान्त किशोर की टीम ने पाया था कि तृणमूल 110 सीटों पर ठीक कर रही है, 50 सीटों पर साफ-साफ हार रही है जबकि 134 सीटों पर कड़ी लड़ाई है।

जून के दूसरे जमीनी सर्वेक्षण में बताया गया कि तृणमूल के लिए ठीक प्रदर्शन करने वाली सीटें 110 से घट कर 92 हो गईं। हारने वाली सीटों की संख्या 50 से बढ़ कर 75 पहुंची तो कड़ी लड़ाई वाली सीटों की संख्या 134 से घट कर 127 हुई।

Cyclone Amphan killed 72 in West Bengal, says CM Mamata Banerjee- The New  Indian Express

हालांकि आधिकारिक तौर पर प्रशांत और उनकी कंपनी ऐसे किसी सर्वे और उसके ऐसे किसी परिणाम से इनकार कर रही है लेकिन भरे लाकडाउन के दौरान प्रशांत का बंगाल की छुप-छुपा कर हवाई यात्रा करना यह साफ संकेत देता है कि प्रशांत की टीम बंगाल में अपने किसी बेहद जरूरी मिशन में लगी हुई है।

इस जमीनी सत्य से परिचित होने के बाद प्रशांत की सलाह पर ममता बनर्जी ने उनकी कंपनी को 100 से अधिक कठिनतम सीटों “सुपर 100” टीम को काम पर लगाया है जिसमें प्रति सीट 100 पीआर से लेकर अन्य पेशेवर कर्मचारी तैनात रहेंगे।

पश्चिम बंगाल में 32 सालों से सत्ता में काबिज वामपंथी सरकार को बाहर करने के बाद 2011 में पहली बार सत्ता में आई 2016 के चुनावों में वापसी करते हुए ममता अब तीसरे चुनाव का सामना करते समय भीषण एंटी-इनकंबेंसी झेल रही हैं।

इसी के साथ मुस्लिम तुष्टीकरण की उनकी राजनीति ने लगातार प्रदेश के मतदाताओं के बीच गहरी नाराजगी पैदा की है। तीन दशक से ऊपर राज्य में अराजक वामपंथी सरकार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर मताधिकार के स्वतंत्र उपयोग से वंचित रही बंगाल की जनता चुप रहते हुए दर्द सहने की आदती सी हो चली थी। 2011 में उससे मुक्ति के नाम पर ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल के रूप में एक बार फिर वही अराजक वामपंथी मॉडल का क्लोन यानी दुहराव ही मिला। 2016 में बंगाल में ममता की सत्ता में वापसी वामपंथी शैली में उसी के अराजक कैडर को ठीके पर तृणमूल द्वारा अपने लिए इस्तेमाल के जरिये संभव हुई।

लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद 2019 में उसके दुहराव ने देश भर में मतदाता के स्तर पर एक क्रांतिकारी परिवर्तन की स्थापना की है। लोकतंत्र का मालिक मतदाता अब अपने मताधिकार का प्रयोग आजादी के साथ कर रहा है। चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं ने लोकसभा से लेकर विधानसभा के चुनावों को अलग-अलग चरणों में कराने की व्यवस्था कर इस पूरी प्रक्रिया को ज्यादा सुरक्षित, आजाद और सुविधाजनक बना रही हैं। ऐसे में पश्चिम बंगाल में तृणमूल की वामपंथी शैली आधारित अराजकता अब मतदाता को पहले जैसे डरने पर मजबूर न कर सकेगी।

रही बात इसी पश्चिम बंगाल में 32 सालों तक सत्ता में कायम रहे वामपंथियों की.. तो उसके जमीनी अराजक कैडर अब ममता बनर्जी के पेरोल पर पलने-खाने के सांचे में ढल चुके हैं और आज बंगाल में इन्हें पूछने वाला कोई नहीं इसलिए ये चर्चा से ही बाहर रहने के योग्य हो कर रह गए हैं।

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इसी के साथ कोरोनाकाल में ममता सरकार के बदतर प्रबंध और बंगाल में आई प्राकृतिक आपदा (साइक्लोन अम्फन) के दौरान भ्रष्टाचार ने तृणमूल के विधायकों और पूरी सरकार की बेहद नकारात्मक छवि बनाने का काम किया जिसके नतीजे जमीनी सर्वेक्षण में दिख रहे हैं।

इस सबके साथ जिस तरह पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने 2019 लोकसभा चुनावों में तृणमूल को झटका देते हुए कुल 42 लोकसभा सीटों में से 18 सीटों पर भाजपा की जीत दर्ज कराई, उसने साफ संकेत दे दिया है। आगे जिस तरह भाजपा विधानसभा में खुद को विकल्प के तौर पर प्रस्तुत कर रही है उसने राज्य के मतदाताओं के सामने एक साफ-साफ विकल्प दे दिया है और बंगाल का मतदाता अराजकों से बिना डरे ईवीएम पर मजबूती से बोलने के तेवर में है।

उसे भाजपा का साथ कैसे मिल रहा है, यह 2019 लोकसभा चुनाव में उसके नारे “उन्नीस में हाफ, इक्कीस में साफ” के आधा सत्य होने से दिख रहा है जिसके इक्कीस में पूर्ण होने के साफ संकेत खुद ममता बनर्जी, तृणमूल के कराए अपने जमीनी सर्वेक्षण से मिलते नजर आ रहे हैं।

बंगाल अपने भीतर पैदा कराए गए तमाम कीचड़ में अब कमल खिलाने की तरफ बढ़ता दिख रहा है।

#अवनीश पी. एन. शर्मा

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उन्नीस में हाफ, इक्कीस में साफ

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on August 18, 2020

अवनीश पी.एन. शर्मा

लोकसभा 2019 के चुनाव में पश्चिम बंगाल भाजपा का यह नारा था जिसका अर्थ है : 2019 लोकसभा चुनाव में राज्य की आधी विधानसभा सीटों पर विजय हासिल करना और उसके दम पर 2021 बंगाल विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल सरकार को सत्ता से बाहर (साफ) करना।

Kolkata's Hand-Pulled Rickshaws Are The Last Sketches Of A ...
देश के सबसे पुराने और एक समय के सबसे संपन्न रहे शहर की अब पहचान यही है

भाजपा अपने इस लक्ष्य में सफल रही और उसने बंगाल विधानसभा की कुल 294 सीटों में से 140 से अधिक विधानसभाओं में शुरुआती बढ़त पा कर 122 विधानसभा सीटों जीत हासिल करते हुए 2019 लोकसभा में बंगाल की कुल 42 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज किया। उन्नीस के आम चुनावों में पश्चिम बंगाल में भाजपा के पक्ष में 40.5 प्रतिशत मत पड़े थे और फिलहाल विधानसभा में उसके छह विधायक हैं।

लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने 23 सीटों का लक्ष्य रखा था और 18 सीटें मिलीं। 2021 पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव उसका लक्ष्य 250 सीटों का है। 2014 में 34 लोकसभा सीटें जीतने वाली तृणमूल कांग्रेस 2019 में 22 सीटें ही जीत पाई। कांग्रेस चार सीटों से घट कर दो पर आ गई और माकपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई।

West Bengal Districts Map | West bengal, Bengal, India west
सांंप्रदायिक विभाजन ने बाँट दिया वैभव

2019 के आम लोकसभा चुनावों से एक साल पहले राज्य में हुए पंचायत चुनावों में तृणमूल ने जीत जरूर दर्ज की लेकिन मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में उसमे सामने 5465 सीटें जीत कर भाजपा ही रही। पश्चिम बंगाल में तमाम वर्षों में यह पहला मौका था जब भाजपा ने राज्य के हर जिले में ग्राम पंचायत स्तर पर जीत हासिल की। माकपा दूसरे स्थान से खिसक कर तीसरे स्थान पर तो कांग्रेस चौथे नंबर पर रही। इसके पहले 2017 शहरी निकाय चुनावों में भाजपा सीटें तो कम जीती लेकिन आमतौर पर वह कांग्रेस-वाम मोर्चे को पीछे छोड़ते हुए दूसरे स्थान पर आती दिखी तृणमूल के सामने।

पश्चिम बंगाल में 1977 से 2011 तक शासन करने वाले वामदल राज्‍य की राजनीति में अपना जनाधार खोते जा रहे हैं। 2011 में जहां उन्‍हें 40 फीसदी वोट मिले थे। वहीं, इसके बाद उसकी हिस्सेदारी घटती चली गई। इस चुनाव में ताे उसका सूपड़ा ही साफ हो गया। वाम मोर्चा के सत्ता में रहते टीएमसी को 2009 के लोकसभा चुनाव में 19 सीटें मिली थीं। उसके दो साल बाद विधानसभा चुनाव में वह सत्ता में आ गई। वाम दलों की सिकुड़न का जो फायदा उठा कर तृणमूल मजबूत हुई उसी आधार पर भाजपा को भी वैसी ही उम्मीद है। 2019 आम चुनावों में कुल मिले विधानसभा वार वोटों और प्रतिशत के हिसाब से तृणमूल से आगे निकलने के लिए भाजपा को सिर्फ 17,28,828 वोटों का गैप पाटना है।

Writers' Building | Kolkata City Tours
बंगाल की सत्ता के गलियारे

पश्चिम बंगाल में करीब 30 फीसदी मुसलमान और 24 फीसदी दलित हैं। दोनों ही समुदायों में वामदलों का जनाधार काफी घटा है। अल्पसंख्यकों के पक्ष में बहुत ज्यादा झुकने का मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को नुकसान उठाना पड़ा है। अपने दल के उपद्रवी तत्वों पर अंकुश लगाने में भी उनकी पकड़ कमजोर रही। इन सभी ने भाजपा को प्रदेश में अपने पांव मजबूत करने में मदद की। जहां पूरे देश में शांतिपूर्ण तरीके से चुनाव संपन्न हुए। वहीं, बंगाल में सातों चरणों में हिंसक घटनाएं देखने में आईं. लोगों की नाराजगी वोटों के रूप में दिखाई दी। किसी भी अन्य राज्य के मुकाबले यहां सबसे ज्यादा मतदान हुआ।

पश्चिम बंगाल में 10 सालों से सत्ता में बनी तृणमूल और उसकी नेता ममता बनर्जी के सामने वामदलों से सत्ता हासिल करने के उन्हीं के फार्मूलों का बदले सन्दर्भों में अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की रणनीति के साथ भाजपा पश्चिम बंगाल के मतदाता को एक सरकार का विकल्प देते हुए मिशन बंगाल में है।

© अवनीश पी. एन. शर्मा

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वे जो धर्मनिरपेक्ष हैं…

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on November 6, 2009

अभी थोड़े दिनों पहले मुझे गांव जाना पड़ा. गांव यानी गोरखपुर मंडल के महराजगंज जिले में फरेन्दा कस्बे के निकट बैकुंठपुर. हमारे क्षेत्र में एक शक्तिपीठ है.. मां लेहड़ा देवी का मन्दिर. वर्षों बाद गांव गया था तो लेहड़ा भी गया. लेहड़ा वस्तुत: रेलवे स्टेशन है और जिस गांव में यह मंदिर है उसका नाम अदरौना है. अदरौना यानी आर्द्रवन में स्थित वनदुर्गा का यह मन्दिर महाभारतकालीन बताया जाता है. ऐसी मान्यता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने राजा विराट की गाएं भी चराई थीं और गायों को चराने का काम उन्होंने यहीं आर्द्रवन में किया था और उसी वक़्त द्रौपदी ने मां दुर्गा की पूजा यहीं की थी तथा उनसे पांडवों के विजय की कामना की थी. हुआ भी यही.

समय के साथ घने जंगल में मौजूद यह मंदिर गुमनामी के अंधेरे में खो गया. लेकिन फिर एक मल्लाह के मार्फ़त इसकी जानकारी पूरे क्षेत्र को हुई. मैंने जबसे होश संभाला अपने इलाके के तमाम लोगों को इस जगह पर मनौतियां मानते और पूरी होने पर दर्शन-पूजन करते देखा है. ख़ास कर नवरात्रों के दौरान और मंगलवार के दिन तो हर हफ़्ते वहां लाखों की भीड़ होती है और यह भीड़ सिर्फ़ गोरखपुर मंडल की ही नहीं होती, दूर-दूर से लोग यहां आते हैं. इस भयावह भीड़ में भी वहां जो अनुशासन दिखता है, उसे बनाए रख पाना किसी पुलिस व्यवस्था के वश की बात नहीं है. यह अनुशासन वहां मां के प्रति सिर्फ़ श्रद्धा और उनके ही भय से क़ायम है.

ख़ैर, मैं जिस दिन गया, वह मंगल नहीं, रविवार था. ग़नीमत थी. मैंने आराम से वहीं बाइक लगाई, प्रसाद ख़रीदा और दर्शन के लिए बढ़ा. इस बीच एक और घटना घटी. जब मैं प्रसाद ख़रीद रहा था, तभी मैंने देखा एक मुसलमान परिवार भी प्रसाद ख़रीद रहा था. एक मुल्ला जी थे और उनके साथ तीन स्त्रियां थीं. बुर्के में. एकबारगी लगा कि शायद ऐसे ही आए हों, पर मन नहीं माना. मैंने ग़ौर किया, उन्होंने प्रसाद, कपूर, सिन्दूर, नारियल, चुनरी, फूल…… वह सब ख़रीदा जिसकी ज़रूरत विधिवत पूजा के लिए होती है. जान-बूझ कर मैं उनके पीछे हो लिया. या कहें कि उनका पीछा करने का पाप किया. मैंने देखा कि उन्होंने पूरी श्रद्धापूर्वक दर्शन ही नहीं किया, शीश नवाया और पूजा भी की. नारियल फोड़ा और रक्षासूत्र बंधवाया. फिर वहां मौजूद अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के आगे भी हाथ जोड़े और सबके बाद भैरो बाबा के स्थान पर भी गए. आख़िरकार मुझसे रहा नहीं गया. मैंने मुल्ला जी से उनका नाम पूछ लिया और उन्होने सहज भाव से अपना नाम मोहम्मद हनीफ़ बताया. इसके आगे मैंने कुछ पूछा नहीं, क्योंकि पूछने का मतलब मुझे उनका दिल दुखाना लगा. वैसे भी उन्हें सन्देह की दृष्टि से देखने की ग़लती तो मैं कर ही चुका था.

बाद में मुझे याद आया कि यह दृश्य तो शायद मैं पहले भी कई बार देख चुका हूं. इसी जगह क़रीब 10 साल पहले मैं एक ऐसे मुसलमान से भी मिल चुका हूं, जो हर मंगलवार को मां के दर्शन करने आते थे. उन्होंने 9 मंगल की मनौती मानी थी, अपने खोये बेटे को वापस पाने के लिए. उनका बेटा 6 महीने बाद वापस आ गया था तो उन्होंने मनौती पूरी की. मुझे अब उनका नाम याद नहीं रहा, पर इतना याद है कि वह इस्लाम के प्रति भी पूरे आस्थावान थे. तब मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. मोहर्रम के कई दिन पहले ही हमारे गांव में रात को ताशा बजने का क्रम शुरू हो जाता था और उसमें पूरे गांव के बच्चे शामिल होते थे. मैं ख़ुद भी नियमित रूप से उसमें शामिल होता था. हमारे गांव में केवल एक मुस्लिम परिवार हैं, पर ताजिये कई रखे जाते थे और यहां तक कि ख़ुद मुस्लिम परिवार का ताजिया भी एक हिन्दू के ही घर के सामने रखा जाता था. गांव के कई हिन्दू लड़के ताजिया बाबा के पाएख बनते थे. इन बातों पर मुझे कभी ताज्जुब नहीं हुआ. क्यों? क्योंकि तब शायद जनजीवन में राजनीति की बहुत गहरी पैठ नहीं हुई थी.

इसका एहसास मुझे तीसरे ही दिन हो गया, तब जब मैंने देवबन्द में जमीयत उलेमा हिन्द का फ़तवा सुना और यह जाना कि प्रकारांतर से हमारे गृहमंत्री पी. चिदम्बरम उसे सही ठहरा आए हैं. यह अलग बात है कि अब सरकारी बयान में यह कहा जा रहा है कि जिस वक़्त यह फ़तवा जारी हुआ उस वक़्त चिदम्बरम वहां मौजूद नहीं थे, पर जो बातें उन्होंने वहां कहीं वह क्या किसी अलगाववादी फ़तवे से कम थीं? अब विपक्ष ने इस बात को लेकर हमला किया और ख़ास कर मुख्तार अब्बास नक़वी ने यह मसला संसद में उठाने की बात कही तो अब सरकार बगलें झांक रही है. एक निहायत बेवकूफ़ी भरा बयान यह भी आ चुका है कि गृहमंत्री को फ़तवे की बात पता ही नहीं थी, जो उनके आयोजन में शामिल होने से एक दिन पूर्व ही जारी किया जा चुका था और देश भर के अख़बारों में इस पर ख़बरें छप चुकी थीं. क्या यह इस पूरी सरकार की ही काबिलीयत पर एक यक्षप्रश्न नहीं है? क्या हमने अपनी बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में सौंप रखी है, जिनका इस बात से कोई मतलब ही नहीं है कि देश में कहां-क्या हो रहा है? अगर हां तो क्या यह हमारे-आपके गाल पर एक झन्नाटेदार तमाचा नहीं है? आख़िर सरकार हमने चुनी है.

अभी हाल ही में एक और बात साफ़ हुई. यह कि जनवरी में मुसलमानों को बाबा रामदेव से बचने की सलाह देने वाले दारुल उलूम के मंच पर उनके आते ही योग इस्लामी हो गया. यह ज़िक्र मैं सिर्फ़ प्रसंगवश नहीं कर रहा हूं. असल में इससे ऐसे संगठनों का असल चरित्र उजागर होता है. इन्हीं बातों से यह साफ़ होता है कि राजनेताओं और धर्मध्वजावाहकों – दोनों की स्थिति एक जैसी है. देश और समुदाय इनके लिए सिर्फ़ साधन हैं. ऐसे साधन जिनके ज़रिये ये अपना महत्व बनाए रख सकते हैं. मुझे मुख़्तार अब्बास नक़वी की भावना या उनकी बात और इस मसले को लेकर उनकी गंभीरता पर क़तई कोई संदेह नहीं है, लेकिन उनकी पार्टी भी इसे लेकर वाकई गंभीर है, इस पर संदेह है. जिस बात के लिए भाजपा ने जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखा दिया, वही पुण्यकार्य वाचिक रूप में वर्षों पहली आडवाणी जी कर चुके हैं. फिर भी अभी तक वह पार्टी में बने हुए हैं, अपनी पूरी हैसियत के साथ. हालांकि उनको रिटायर करने की बात भी कई बार उठ चुकी है. फिर क्या दिक्कत है? आख़िर क्यों उन्हें बाहर नहीं किया जाता? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि आख़िर क्यों आडवाणी और चिदम्बरम जैसे महानुभावों पर विश्वास किया जाता है? आख़िर क्यों ऐसे लोगों को फ़तवा जारी करने का मौक़ा दिया जाता है और ऐसे देशद्रोही तत्वों के साथ गलबहियां डाल कर बैठने और मंच साझा करने वालों को देश का महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपा जाता है? क्या सौहार्द बिगाड़ने वाले ऐसे तत्वों के साथ बैठने वालों का विवादित ढांचा ढहाने वालों की तुलना में ज़रा सा भी कम है? क्या मेरे जैसे हिन्दू या मोहम्मद हनीफ़ जैसे मुसलमान अगर कल को राष्ट्र या मनुष्यता से ऊपर संप्रदाय को मानने लगें तो उसके लिए ज़िम्मेदार आख़िर कौन होगा? क्या चिदम्बरम जैसे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष इसके लिए उलेमाओं और महंतों से कुछ कम ज़िम्मेदार हैं?

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संघे शरणं गच्छामि….

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on August 28, 2009

लोकतांत्रिक भारत में पैदा हुए राजकुमार तमाम आर्यसत्यों को समझते-समझते ख़ुद मंत्री बन गए. असल में अब ईसापूर्व वाली शताब्दी तो रही नहीं, यह ईसा बाद की 21वीं शताब्दी है और ज़िन्दगी के रंग-ढंग भी ऐसे नहीं रह गए हैं कि कोई बिना पैसे-धेले के जी ले. वैसे तो उन्हें जब भी अपना पिछ्ला जन्म याद आता तो अकसर उन्हें यह सोच कर कष्ट होता था कि वे भी क्या दिन थे. मांगने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी, अकसर तो बिन मांगे ही बड़े आराम से भिक्षा मिल जाती थी. जो लोग जान जाते कि यह तो राजपुत्र है, वे तो यह भी इंतज़ार नहीं करते थे कि उनके दरवाज़े तक पहुंचूं मैं. जहां जाता, अगर मेरे वहां पहुंचने या होने की सूचना मिल जाती तो राज परिवारों से जुड़े लोग बहुत लोग तो ख़ुद ही चलकर आ जाते थे भिक्षा देने नहीं, चढ़ावे चढ़ाने. कई राज परिवार तो तैयार बैठे रहते थे संन्यास दीक्षा लेने के लिए पहले से ही. एक ज़माना यह है, अब मांगो भी भीख नहीं मिलती. अब भीख सिर्फ़ तब मिलती है जब आप किसी बड़े बाप के आंख के तारे को उससे दूर कर दें. छिपा दें कहीं और फिर फ़ोन से सूचना दें कि भाई इतने रुपये का चढ़ावा इस स्थान पर इतने बजे रख जाएं. और ध्यान रखें, किसी प्रकार की समझदारी करने की कोशिश न करें यानी पुलिस-वुलिस को सूचना न दें, वरना आसपास मौजूद हमारे भदंत आपको वहीं से महापरिनिर्वाण को उपलब्ध करा देंगे. या फिर आप कोई लाइसेंस-वाइसेंस दिलाने की हैसियत में हों और उसे रोक दें. या फिर तब जब आप इनकम टैक्स विभाग से काला-सफ़ेद करने का पक्का परवाना रखते हों और दो लाख लेकर 10 लाख की रसीद दे सकें. अब जीवन की पृहा से मुक्ति के लिए संत नहीं बना जा सकता है, बल्कि तमाम संपदाएं अर्जित करने के लिए संत बना जाता है. संत बन कर वे सारी सुविधाएं हासिल की जाती हैं जो दिन-रात खटने वाले गृहस्थों को भी हासिल नहीं होती हैं.
लिहाज़ा इस जीवन में महापरिनिर्वाण पुराने वाले तरीक़े से तो नहीं मिलने वाला है, ये तो तय है. परिनिर्वाण प्राप्त करने के लिए तप का तरीक़ा दूसरा ही अपनाना होगा. तो सबसे पहले उन्होंने सरस्वती की ध्यान साधना की, देश के सबसे बड़े अगिया बैताल की छत्रछाया में. एक से बढ़कर एक चमत्कार किए उन्होंने ध्यान साधना के तहत. इसी दौरान कुछ नए देवताओं से उनका संपर्क हुआ और उन्होंने जान लिया कि जनता अब तक जिन देवताओं को पूजती आ रही है वे सब के सब बिलकुल ग़लत-सलत देवता हैं. जनता इन्हें झुट्ठे पूजती है, असली देवता तो दूसरे हैं. उन्होंने यह बात समझी और किसी ध्यान साधक की तरह बात समझ में आते ही नए मिले देवताओं की पूजा शुरू कर दी.
अब ज़ाहिर है जब आप किसी देवता को पूजिएगा तो चाहे नया हो या पुराना, वह फल तो देगा ही. बल्कि नए देवता थोड़ा ज़्यादा ही फल देते हैं. सो उन्होंने दिया भी. उन्होंने सबसे पहले तो इन्हें समझाया कि भाई देख सरस्वती की साधना से आज तक किसी को भी निर्वाण नहीं मिला है. निर्वाण मिलता है विष्णु भगवान की कृपा से और विष्णु जी मानते हैं लक्ष्मी जी को. उनकी ही सिफ़ारिश चलती है विष्णु भगवान के सामने. तो अब तू उन्हीं की साधना और साधना उस अगिया बैताल के यहां नहीं हो सकती. यह साधना तुझे करनी होगी हमारी छत्रछाया में, तो चल ये ले मंत्री पद और संभाल अपनिवेश का कारोबार.
राजकुमार ने तुरंत यह साधना शुरू की और अबकी बार इतने मन से की कि कुछ भी बक़ाया नहीं छोड़ा. अपनिवेश का काम उन्होंने इतने मन से किया कि उनके देवराज का सिंहासन डोलने लगा. ऐन वक़्त पर उनके हाथ से जान छुड़ाकर भाग गया देश, वरना उन्होंने उसे भी नहीं छोड़ा होता. ख़ैर उनके सपने अधूरे नहीं रहेंगे, इसका भरोसा उनके बाद उनके मार्ग के साधकों ने दिला दिया. इसीलिए बाद में कुछ विकल्पहीनता की त्रासदी और कुछ ईवीएम की कृपा ने जनता से उन्हें ऐज़ इट इज़ कंटीन्यू भी करवा दिया. बहरहाल, मंत्रालयी दौर में ही राजकुमार राष्ट्र अपश्रेष्ठि के ऐसे प्रिय हुए कि हवाई अड्डे पर उनके गुरुभाई इंतज़ार ही करते रहते और राजकुमार स्वयं विमान के पिछले दरवाज़े निकल अपश्रेष्ठि के कलाकक्ष में पहुंच जाते.
पर इसके बाद से बेचारे राजकुमार का मन उखड़ गया. उनकी समझ में एक तो यह बात आ गई कि राष्ट्र ऐसे चलने वाला नहीं है. राष्ट्र में अब दुख ही दुख है और दुख से उबार सकने की ताक़त रखने वाले इकलौते विहार में अब कोई दम नहीं रह गया है. यहां तक कि इसके जो देवता हैं, उन्हें उनके ही कुछ भक्तों ने अंतर्ध्यान यानी कि नज़रबन्द कर दिया है. तब? अब क्या किया जाए? यह प्रश्न उठा तो उन्होंने एक बार फिर ध्यान लगाया और पाया कि इस विहार के पीछे एक संघ है. वैसे तो विहार में प्रवेश का रास्ता ही संघ से होकर आता था, लेकिन राजकुमार को राजकुमार होने के नाते उसकी ज़रूरत शायद नहीं पड़ी थी. पर अभी उन्हें अचानक उसकी अहमियत पता चल गई और इसीलिए उन्होंने एकदम से घोषणा कर दी.
हालांकि घोषणा जो उन्होंने की, वह अंग्रेजी में की और अब क्या बताएं! यह कहते हुए मुझे बड़ी शर्म आती है कि वह मेरी समझ में बिलकुल वैसे ही ज़रा भी नहीं आई, जैसे 6 साल पहले उनके विहार का इंडिया साइनिंग और फील गुड़ वाला नारा पूरे देस की अनपढ़ जनता के समझ में नहीं आया था. ख़ैर, हमने सोचा कि अपन मित्र सलाहू किस दिन काम आएगा. सों हमने उससे पूछ लिया. उसने जो बताया और उसका जो लब्बोलुआब मेरी समझ में आया वो ये कि अब ये जो अपना विहार है इसकी स्थिति बिहार जैसी हो गई है और राजा साहब की हालत लालू और रामबिलास पासवान जैसी हो गई है. विहार के जो और भदंत हैं ऊ त बेचारे सब ऐसे हो गए हैं जैसे पंचतंत्र का वो सियार जो एक बछड़े के बाप के पीछे-पीछे लगा था.
ज़ाहिर है, अब ऐसे में ये सवाल तो उठना ही था कि फिर क्या किया जाए. कैसे मिलेगा निर्वाण. सवाल उठते ही उन्होंने तुरंत ध्यान लगाया. ध्यान में नारद मुनि आए. देवर्षि को राजकुमार ने अपनी समस्या बताई तो उन्होंने तुरंत उन्हें सूतजी से मिलवाया. भला हो सूतजी का कि उन्होंने इस घोर कलिकाल में कथाओं पर उमड़ते-घुमड़ते शंकाओं के बादलों को देखते हुए कथा सुनने का कोई उपाय नहीं बताया. उन्होंने लौकिक उपाय बताते हुए राजकुमार को संघ के शरण में जाने का उपाय सुझाया. वही बहुमूल्य उपाय कुछ दिनों पूर्व उन्होंने मृत्युलोक के वासियों को बताया है. नया उपाय जानकर लोकवासियों में धूम मचनी ही थी, सो वो मची हुई है. सभी जाप कर रहे हैं : संघे शरणं गच्छामि, संघे शरणं गच्छामि, संघे शरणं गच्छामि…… आप भी कर के देख लीजिए. क्या पता दुख के जिन्न से पीछे छूट जाए.

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अबकी बारिश में ये शरारत….

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on August 10, 2009

 

सलाहू इन दिनों दिल्ली से बाहर है. किसी मुकद्दमे के सिलसिले में कोलकाता गया हुआ है. भगवान जाने किस जजमान (चाहें तो उसकी भाषा में मुवक्किल कह लें) को कात रहा है, वह भी मोटा या महीन. अच्छे दोस्त न हों तो आप जानते ही हैं दुश्मनों की कमी खलने लगती है. कल वह मिल गया जीमेल के चैटबॉक्स में. इस वर्चुअल युग में असली आधुनिक तो आप जानते ही हैं, वही है जो बीवी तक से बेडरूम के बजाय चैट रूम में मिले. ख़ैर अपन अभी इतने आधुनिक हुए नहीं हैं, हां होने की कोशिश में लगे ज़रूर हैं. काफ़ी दिनों बाद मुलाक़ात हुई थी. सो पहले हालचाल पूछा. इसके बावजूद कि उसकी चाल-चलन से मैं बख़ूबी वाक़िफ़ हूं और ऐसी चाल चलन के रहते किसी मनुष्य के हाल ठीक होने की उम्मीद करना बिलकुल वैसी ही बात है, जैसे ईवीएम और पार्टी प्रतिबद्ध चुनाव आयुक्त के होते हुए निष्पक्ष चुनाव और उसके सही नतीजों का सपना देखने की हिमाक़त दिनदहाड़े करना. चूंकि दुनिया वीरों से ख़ाली नहीं है, लिहाजा मैं भी कभी-कभी ऐसी हिमाकत कर ही डालता हूं.

सो मैंने हिमाकत कर डाली और छूटते ही पूछ लिया, ‘और बताओ क्या हाल है?’

‘हाल क्या है, बिलकुल बेहाल है.’ सलाहू का जवाब था, ‘और बताओ वहां क्या हाल है? तुम कैसे हो?’

‘यहां तो बिलकुल ठीक है’, मैंने जवाब दिया,’और मैं भी बिलकुल मस्त हूं.’

‘अच्छा’ उसने ऐसे लिखा जैसे मेरे अच्छे और मस्त होने पर उसे घोर आश्चर्य हुआ. गोया ऐसा होना नहीं चाहिए, फिर भी मैं हूं. उसका एक-एक अक्षर बता रहा था कि अगर वह भारत की ख़ानदानी लोकतांत्रिक पार्टी की आका की ओर से प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया होता तो अभी मेरे अच्छे और मस्त होने पर ऐसा टैक्स लगाता कि मेरी आने वाली सात पीढियां भरते-भरते मर जातीं और तब भी उसकी किस्तें क्रेडिट कार्ड के कर्ज की तरह कभी पूरी तरह चुक नहीं पातीं.

‘ये बताओ, वहां कुछ बरसात-वरसात हुई क्या?’उसने पूछा.

‘हां हुई न!’ मैंने जवाब दिया, ‘अभी तो कल रात ही हुई है. और वहां क्या हाल है?’

‘अरे यार यहां तो मत पूछो. बेहाल है. नामो-निशान तक नहीं है बरसात का.’

‘क्या बात करते हो यार! अभी तो मैंने आज ही टीवी में देखा है कि कोलकाता में क़रीब डेढ़ घंटे तक झमाझम बारिश हुई है!’ मैंने उसे बताया.

‘तुम मीडिया वाले भी पता नही कहां-कहां से अटकलपच्चू ख़बरें ले-लेकर आ जाते हो.’ उसने मुझे लताड़ लगाई, ‘ ऐसे समय में जबकि ज़ोरों की बारिश होनी चाहिए कम-से-कम तीन-चार दिन तक तो एकदम लगातार, तब डेढ़ घंटे अगर बारिश हो गई तो उसे कोई बारिश माना जाना चाहिए?’

अब लीजिए इन जनाब को डेढ़ घंटे की बारिश कोई बारिश ही नहीं लगती. इन्हें कम-से-कम तीन-चार दिनों की झमाझम बारिश चाहिए और वह भी लगातार. ‘भाई बारिश तो यहां भी उतनी ही हुई है. बल्कि उससे भी कम, केवल आधे घंटे की. तो भी मैं तो ख़ुश हूं कि चलो कम-से-कम हुई तो. और तुम डेढ़ घंटे की बारिश को भी बारिश नहीं मानते?’

‘अब तुम्हारे जैसे बेवकूफ़ चाहें तो केवल बादल देखकर भी ख़ुश हो सकते हैं और लगातार मस्त बने रह सकते हैं.’

‘सकते क्या हैं, बने ही रहते है. देखो भाई, ख़ुश रहना भी एक कला है, बिलकुल वैसे ही जैसे जीवन जीना एक कला है. जिन्हें जीने की कला आ जाती है उन्हें काला हांडी में अकाल नहीं दिखाई देता, अकाल राहत के प्रयास दिखाई देते हैं. उन्हें उस प्रयास के बावजूद पेट की खाई भरने के लिए अपने बच्चे बेचते लोग दिखाई नहीं देते, राहतकार्यों के लिए आए बजट से न केवल अपनी, बल्कि अपने रिश्तेदारों, भाई-भतीजों, दोस्तों और इक्के-दुक्के पड़ोसियों तक की ग़रीबी को बंगाल की खाड़ी में डुबे आते लोग दिखाई देते हैं. जिन्हें वह कला आती है, उन्हें बाढ़ राहत में धांधली नहीं, राहत कोश से अफ़सरों और मंत्रियों के भरते घर दिखाई देते हैं. उन्हें ईवीएम में गड़बड़ी पर फ़ैसला कोर्ट का नहीं, चुनाव आयोग का काम दिखाई देता है. ठीक वैसे ही जिन्हें यह कला आती है, वे डेढ़ घंटे  की  बारिश की निन्दा नहीं करते, बादल देखकर भी प्रसन्न हो जाते हैं.’

‘तो रहो प्रसन्न.’ उसने खीज कर लिखा.

‘हां, वो तो मैं हूं ही.’ मैंने उसे बताया, ‘तुम्हें शायद मालूम नहीं इतनी ग़रीबी और तथाकथित बदहाली के बावजूद दुनिया में खुशी के इंडेक्स पर भारत का तीसरा नम्बर है. जीवन जीने की कला के मामले में पूरी दुनिया हम भारतीयों का लोहा मानती है. जानते हो कैसे?’

‘कैसे?’

‘ऐसे कि ऐसे केवल हमीं हैं जो नेताओं से सिर्फ़ वादे सुनकर ख़ुश हो जाते हैं. उन्हे निभाने की उम्मीद तो हमारे देश की जनता कभी ग़लती से भी नहीं करती है. ऐसे समय में जबकि पूरा देश महंगाई और बेकारी से मर रहा हो, हम धारा 377 पर बहस करने में लग जाते हैं. अगर कोई न भी लगना चाहे इस बहस में और वह महंगाई-बेकारी की बात करना चाहे तो हमारे बुद्धिजीवी उसकी ऐसी गति बनाते हैं कि बेचारा भकुआ कर ताकता रह जाता है. गोया अगर वह गे या लेस्बी नहीं है, तो उसका इस जगत में होना ही गुनाह है.’

‘हुम्म!’ बड़ी देर बाद सलाहू ने ऐसे हुम्म की जैसे  कोई मंत्री किसी योजना की 90 परसेंट रकम डकारने के बाद 10 परसेंट अपने चमचों के लिए टरका देता है.

‘अब बरसात का मामला भी समझ लो कि कुछ ऐसा ही है.’ मैंने उसे आगे बताना शुरू किया, ‘तुम्हें याद है न हमारे एक प्रधानमंत्री हुआ करते थे. वह भी खानदानी तौर पर प्रधानमंत्री बनने की व्याधि से पीड़ित थे. इसके बावजूद उन्होंने कहा था कि हम जब किसी योजना के तहत 100 रुपये की रकम जनता के लिए जारी करते हैं तो उसमें से 85 तो पहले ही ख़त्म हो जाते हैं. मुश्किल से 15 पहुंच पाते हैं जनता तक.’

‘हुम्म!’ उसने चैटबॉक्स में लिखा और मुझे उसकी मुंडी हिलती हुई दिखी.

‘अब वह स्वर्गीय हो चुके हैं, ये तो तुम जानते ही हो.’ मैंने उसे बताया और उसने फिर चैट बॉक्स में हुंकारी भरी. तो मैंने आगे बताया, ‘तुमको यह तो पता ही होगा कि बड़े लोग प्रेरणास्रोत होते हैं. असली नेता वही होता है, जो देश ही नहीं, पूरी दुनिया की जनता को अपने बताए रास्ते पर चलवा दे.’

उसने फिर हुंकारी भरी तो मैंने फिर बताया, ‘अब देखो, वह अकेले ही तो गए नहीं हैं. उनसे पहले भी तमाम लोग वहां जा चुके थे और बाद में भी बहुत लोग गए हैं. वे सारे आख़िर वहां कर क्या रहे हैं! वही कला अब उन्होंने स्वर्ग के कारिन्दों को भी सिखा दी है. लिहाजा बारिश के साथ भी अब ऐसा ही कुछ हो रहा है. इन्द्र देवता बारिश का जो कोटा तय करके रिलीज़ कर रहे हैं उसमें से 90 परसेंट तो वहीं बन्दरबांट का शिकार हो जा रहा है. वह स्वर्ग के अफ़सरों और अप्सराओं के खाते में ही चला जा रहा है. जो 10 परसेंट बच रहा है, वह जैसे-तैसे धरती तक आ रहा है.’

‘तो क्या अब इतने में ही हम प्रसन्न रहें.’ उसने ज़ोर का प्रतिवाद दर्ज कराया.

‘हां! रहना ही पड़ेगा बच्चू!’ मैंने उसे समझाया, ‘न रहकर सिर्फ़ अपना ब्लड प्रेशर बढ़ाने के अलावा और कर भी क्या सकते हो? जब धरती पर एक लोकतांत्रिक देश में हो रही अपने ही संसाधनों की बन्दरबांट पर हम-तुम कुछ नहीं कर सके तो स्वर्ग से हो रही बन्दरबांट पर क्या कर लेंगे?’

पता नहीं सलाहू की समझ में यह बात आई या नहीं, पर उसने इसके बाद चैटबॉक्स में कुछ और नहीं लिखा. अगर आपको लगता है कि कुछ कर लेंगे तो जो भी कुछ करना मुमकिन लगता हो वही नीचे के कमेंट बॉक्स में लिख दें.

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क्यों नहीं समझते इतनी सी बात?

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on June 20, 2009

लालगढ़ में माओवादियों को घेरने का क़रीब-क़रीब पूरा इंतज़ाम कर लिया गया है. मुमकिन है कि जल्दी ही उनसे निपट लिया जाए और फिलहाल वहां यह समस्या हल कर लिए गए होने की ख़बर भी आ जाए. लेकिन क्या केवल इतने से ही यह समस्या हल हो जाएगी? लालगढ़ में माओवादियों ने प्रशासन और सुरक्षाबलों को छकाने का जो तरीक़ा चुना है, वह ख़ास तौर से ग़ौर किए जाने लायक है. यह मसला मुझे इस दृष्टि से बिलकुल महत्वपूर्ण नहीं लगता कि माओवादी क्या चाहते हैं या उनकी क्या रणनीति है. लेकिन यह इस दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है कि माओवादी जो कुछ भी कर रहे हैं, उसके लिए उन्होंने यह जो रणनीति बनाई है वह सफल कैसे हो जा रही है. क्या उसका सफल होना केवल एक घटना है या फिर हमारी कमज़ोरी या फिर हमारी सामाजिक विसंगतियों का नतीजा या कि हमारी पूरी की पूरी संसदीय व्यवस्था की विफलता? या फिर इन सबका मिला-जुला परिणाम?
यह ग़ौर करने की ज़रूरत है कि माओवादी विद्रोहियों ने अपने लिए लालगढ़ में जो सुरक्षा घेरा बना रखा था उसमें सबसे आगे महिलाएं थीं और बच्चे थे. महिलाओं और बच्चों के मामले में केवल पश्चिम बंगाल ही नहीं, पूरे भारत का नज़रिया एक सा है. उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक. केवल उनके प्रति संवेदनशीलता और उनकी हिफ़ाज़त के मामले में ही नहीं, उनके प्रति हैवानियत के मामले में भी. कोई आसानी से अपने परिवार की महिलाओं, बच्चों या बुजुर्गों को कहीं भिड़ने नहीं भेजता. पर माओवादियों को बचाने के लिए वे यह भी करने को तैयार हो गए तो क्यों? अब यह एक अलग बात है कि माओवादी और नक्सली एक ही बात नहीं है, पर आम तौर पर इन्हें एक ही समझा जाता है. ख़ैर समझने का क्या करिएगा! समझने का तो आलम यह है कि मार्क्सवाद और माओवाद का फ़र्क़ भी बहुत लोग नहीं जानते, पर इससे मार्क्सवाद माओवाद नहीं हो जाता और न अगली पंक्ति के सभी मार्क्सवादियों के व्यवहार में धुर माओवादी या फासीवादी हो जाने से ही ऐसा हो जाता है. बहरहाल, समाज का शोषित-वंचित तबका जब इन्हें बचाने के लिए अपने और अपने प्रियजनों के प्राणों की बाजी तक लगाने के लिए तैयार हो जाता है तो उसके मूल में किसी मार्क्सवाद, माओवाद, स्टालिनवाद या नक्सलवाद का कोई खांचा नहीं होता है. दुनिया के किसी सिद्धांत से उसका कोई मतलब नहीं होता है.
फिर भी यह देखा जाता है कि वह अपना सब कुछ इनके लिए लुटाने को तैयार हो जाता है. यह बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है. नक्सली झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छ्त्तीसगढ़, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश और अन्य राज्यों में भी फैले हैं. सरकारी और पूंजीवादी मीडियातंत्र द्वारा दुष्प्रचार के तमाम टोटके अपनाए जाने के बावजूद इन्हें वहां की आम जनता का पूरा समर्थन मिल रहा है. सिर्फ़ इन्हें ही नहीं, इनके जैसे कई दूसरे संगठनों-गिरोहों को भी जनता का पूरा समर्थन मिल रहा है. भारतीय समाज में बहुत जगहों पर डकैत भी ऐसे ही अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल साबित होते रहे हैं, बावजूद इसके कि उनका ऐसा कोई वाद-सिद्धांत नहीं होता रहा है और न वे किसी बड़े-व्यापक परिवर्तन का सपना ही दिखाते रहे हैं. और हां, इसका मतलब यह भी न निकालें कि मैं डाकुओं, नक्सलियों और माओवादियों को एक समान मान रहा हूं. बुनियादी बात बस यह है कि जनसमर्थन उन्हें भी हासिल होता रहा है. और ऐसा केवल हमारे देश में होता हो, यह भी नहीं है. दुनिया का इतिहास पलट कर देखें तो ऐसे हज़ारों उदाहरण दूसरे देशों में भी मिल जाएंगे. इस तरह देखें तो हमारे समाज में जनसमर्थन हासिल करने का मतलब किसी दर्शन या सिद्धांत के प्रति लोगों का समर्थन या उनकी आस्था हासिल करना नहीं होता है. जब बहुत सारे लोग अपनी और अपने बाल-बच्चों की जान की परवाह छोड़ कर नक्सलियों-माओवादियों का साथ दे रहे होते हैं तो उनके मन में कुछ बहुत गहरे असंतोष होते हैं, रोष होते हैं. उनकी कुछ ज़रूरतें हैं, जिनको वे किसी न किसी तरह एक नियत हद तक शायद पूरी कर देते हैं. यह ग़ौर करने की बात है कि समाज का एक ही ख़ास तबका है जिसे अधिकतर नक्सली या माओवादी संगठन अपना निशाना बनाते हैं. नेपाल से लेकर चेन्नई तक फैले जंगलों में वे इसी ख़ास तबके को लेकर बढ़ते चले गए हैं. बावजूद इसके कि दोनों की हालत अभी तक जस की तस है, ये हक़ीक़त है कि पुलिस के लिए वनवासियों या ग्रामीणों से उनके बारे में किसी तरह का सुराग पाना आसान बात नहीं है. क्यों? क्योंकि आम जनता पुलिस पर ज़रा सा भी भरोसा नहीं करती, लेकिन नक्सलियों और माओवादियों पर पूरा भरोसा करती है. यहां तक कि डाकुओं और आतंकवादियों पर भी भरोसा कर लेती है, पर पुलिस पर वह भरोसा नहीं करती.
ख़ैर भरोसे पर बात बाद में. बुनियादी बात यह है कि उस एक ख़ास तबके को ही पकड़ कर ये आगे फैलते क्यों जाते हैं? क्योंकि यह हमारे समाज का वह तबका है जो बेहद शोषित और पूरी तरह वंचित है. विकास के नए उपादानों का तो उसे कोई लाभ नहीं ही मिल सका है, उसकी रही-सही ज़मीन भी उसके पैरों तले से छीन ली जा रही है. उनके संसाधनों की इस लूट को व्यवस्था की खुली छूट है.
इसका एहसास लूटने वाले हमारे तंत्र को हो न हो, पर भुगतने वालों को तो दर्द टीसता ही है. इसी टीस की पहचान उन्हें है. इसका लाभ वे उठा रहे हैं. और यक़ीनन, वे उसका सिर्फ़ लाभ ही उठा रहे हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे हमारा पूंजीवादी तंत्र वनवासियों के भोलेपन और संसाधनों का लाभ उठा रहा है. पर वनवासियों की मजबूरी यह है कि उन्हें इस तथाकथित सभ्य व्यवस्था के पेंचो-खम पता नहीं हैं. इसलिए वे इसके कई पाटों के बीच पिस कर रह जाते हैं. जब नक्सली आते हैं और उन्हें समझाते हैं कि उनके हक़ की लड़ाई वे लड़ेंगे, तो उनका सहज ही विश्वास कर लेना बहुत ही साधारण बात है. बिलकुल ऐसे ही ग्रामीण डाकुओं की बातों पर भरोसा कर लेते थे. कहीं-कहीं आज भी कर लेते हैं और आगे भी करते रहेंगे. यही बात है जो लालगढ़ में लोगों को माओवादियों की सुरक्षा के लिए आगे खड़े हो जाने के लिए विवश कर रही है.
हालांकि, ख़ास लालगढ़ के सन्दर्भ में यह मामला कई और मसलों पर सोचने के लिए विवश करता है. पर उन सब पर फिर कभी. अभी तो सिर्फ़ इस सवाल का जवाब मैं चाहता हूं कि मान लें लालगढ़ की हालिया समस्या हल कर लेंगे. मान लेते हैं कि वहां सारे माओवादियों को मार गिराएंगे. तो भी क्या इतने से यह समस्या हल हो जाएगी? क्या इसके बाद फिर माओवादी कहीं अपने पैर पसार नहीं सकेंगे? यह क्यों भूलते हैं कि जो लोग उनके प्रति सहानुभूति रखने वाले हैं उनकी तादाद लगातार बढ़ती ही जा रही है. अब सिर्फ़ वनवासी ही नहीं, ग्रामीण किसान भी धीरे-धीरे उसी स्थिति में पहुंच रहे हैं जिस स्थिति में पिछली कई शताब्दियों से वनवासी हैं. गांव का किसान अपने को पूरी तरह लुटा-पिटा महसूस कर रहा है. व्यवस्था उसकी सिर्फ़ और सिर्फ़ उपेक्षा ही कर रही है. पिछले 20 सालों में देश में केंद्र या किसी राज्य की भी सरकार ने किसानों के हित में कोई नीति बनाई हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता. ग़ौर से देखें तो शहरों में एक ऐसा ही तबका है, जो शेष आबादी से कटा हुआ है. शहर की ज़िन्दगी की जो मुख्यधारा कही जाती है उसके हाशिए से भी वह बाहर है. ये सभी जो वर्ग हैं, इन्हें पहले व्यवस्था ने शिकार बनाया है इनके भीतर की मलाई निकालने के लिए और आने वाले दिनों में माओवादी या ऐसे ही दूसरे संगठन इन्हें अपना शिकार बनाएंगे. इनका उपयोग कर व्यवस्था की मलाई हासिल करने के लिए.
वह स्रोत जिससे ऐसे संगठनों को ऊर्जा मिलती है आगे बढने की वह कोई मनुष्य नहीं, बल्कि आम आदमी के भीतर मौजूद भूख है. यह भूख सिर्फ़ पेट की नहीं है, यह भूख सामान्य मानवीय भावनाओं की भी है. आत्मसम्मान और स्वाभिमान की भी है. मनुष्य के सचमुच का मनुष्य बन कर जीने की भूख है. इसके लिए कुछ ज़्यादा करने की ज़रूरत नहीं है. सिर्फ़ इतना ही तो करना है कि व्यवस्था के शीर्ष पर जो लोग मौजूद हैं, उन्हें अपनी हबस थोड़ी कम कर देनी है. क्या यह बहुत मुश्किल बात है? अगर नहीं तो फिर सिर्फ़ इतना क्यों नहीं कर देते वे? या फिर उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि कल इसका नतीजा क्या निकलेगा?

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तो क्या कहेंगे?

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on June 18, 2009

सलाहू आज बोल ही नहीं रहा है. हमेशा बिन बुलाए बोलने वाला आदमी और बिना मांगे ही बार-बार सलाह देने वाला शख्स अगर अचानक चुप हो जाए तो शुबहा तो होगा ही. यूं तो वह बिना किसी बात के बहस पर अकसर उतारू रहा करता है. कोई मामला-फ़साद हुए बग़ैर ही आईपीसी-सीआरपीसी से लेकर भारतीय संविधान के तमाम अनुच्छेदों तक का बात-बात में हवाला देने वाला आदमी आज कुछ भी कह देने पर भी कुछ भी बोलने के लिए तैयार नहीं हो रहा है. मुझे लगा कि आख़िर मामला क्या है? कहीं ऐसा तो नहीं कि माया मेमसाहब द्वारा बापू को नाटकबाज कह देने से उसे सदमा लग गया हो! पर नहीं, इस बारे में पूछे जाने पर उसने मुझे सिर्फ़ देखा भर. ऐसे जैसे कभी-कभी कोई बड़ी शरारत कर के आने पर मेरे

पिताजी देखा करते थे. चुपचाप.

पर मैंने ऐसी कोई शरारत तो की नहीं थी. ज़ाहिर है, इसका मतलब साफ़ तौर पर सिर्फ़ यही था कि ऐसी कोई बात नहीं थी. फिर क्या वजह है? बार-बार पूछने पर भी सलाहू चुप रहा तो बस चुप ही रहा. जब भी मैंने उससे जो भी आशंका जताई हर बात पर वह सिर्फ़ चुप ही रहा. आंखों से या चेहरे से, अपनी विभिन्न भाव-भंगिमाओं के ज़रिये उसने हर बात पर यही जताया कि ऐसी कोई बात नहीं है.

अंततः यह आशंका हुई कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वह गूंगा हो गया हो. वैसे भी हमारे समाज में जिह्वा को सरस्वती का वासस्थल माना जाता है और उसने जिह्वा का दुरुपयोग बेहिसाब किया है. मुवक्किलों से लेकर मुंसिफों तक. सरकार से लेकर ग़ैर सरकारी लोगों तक किसी को नहीं छोड़ा था. मुझे लगा क्या पता शब्द जिसे ब्रह्म का रूप कहा जाता है उसने इसका साथ छोड़ दिया हो, नाराज़गी के नाते. पर आत्मा से तुरंत दूसरी बात आई. अगर ऐसा होता तब तो यह बात पहले अपने साथ होनी चाहिए थी. आख़िर शब्दों का व्यापार करते हुए ऐसा कौन सा अपराध है जो शब्दों के ज़रिये अपन ने न किया हो! पर नहीं साहब अपन के साथ तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. ऐसा मास्टर के साथ भी नहीं हुआ, जो केवल हिन्दी ही नहीं, संस्कृत और अंग्रेज़ी भाषाओं के साथ भी शब्दों से हेराफेरी करता आ रहा है, पिछले कई वर्षों से. पर ना, उसके साथ भी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.

हुआ तो बेचारे सलाहू के साथ. मुझे लगा कि हो न हो, यह किसी रोग वग़ैरह का ही मामला हो. मैं बेवजह पाप-पुण्य के लेखे-जोखे में फंसा हुआ हूं और हर पढ़े-लिखे आदमी की तरह बेचारे अपने सबसे भरोसेमन्द मित्र के वैज्ञानिक इलाज के बजाय उसके और अपने पाप-पुण्य के लेखे-जोखे में लग गया हूं. आख़िरकार उसके बार-बार इशारों से मना करने के बावजूद मैं उसे जैसे-तैसे पकड़-धकड़ कर डॉक्टर के पास ले ही गया. लेकिन यह क्या डॉक्टर तो उससे पूछने पर तुला है और है कि बोल ही नहीं पा रहा है. आख़िरकार डॉक्टर ने आजिज आकर पता नहीं कौन सा डर्कोमर्कोग्राम एपीएमवीएनेन कराने के लिए कह दिया. तमाम और डॉक्टरी क्रियाओं की तरह मैने इसका भी नाम तो सुना नहीं था, लिहाजा डॉक्टर से पूछ लेना ही बेहतर समझा कि भाई इसका कितना पैसा लगेगा. लेकिन यह क्या, जैसे ही डॉक्टर ने बताया, ‘कुछ ख़ास नहीं, बस बीस हज़ार रुपये लगेंगे और इस टेस्ट से पता न चला तो फिर अमेरिका जाना पड़ेगा. वैसे यह भी हो सकता है कि स्वाइन फ्लू हुआ हो….’

सलाहू चुप नहीं रह सका. एकाएक चिल्ला कर बोला, ‘अरे मेरी जान के दुश्मनों मुझे कुछ नहीं हुआ है. मैं बिलकुल ठीक हूं.”

’अबे तो अब तक बोल क्यों नहीं रहा था.’

’बस ऐसे ही.’

’क्या भौजाई ने कुछ कह दिया’

’उंहूं”

’फिर’

उसने फिर सिर हिलाया. न बोलने का नाटक करते हुए.

‘तो क्या कचहरी में कोई बात हो गई’

उसने फिर न में सिर हिलाया.

’तो फिर क्या बात हुई?’

अब वह एकदम चुप था. पुनर्मूषकोभव वाली स्थिति में आ गया था. न बोलने की कसम उसने लगता है फिर खा ली थी.

‘भाई क्या वजह है? बोल और बिलकुल सही-सही बता वरना ये जान लो कि अभी तुम्हारी डर्कोमर्कोग्रामी शुरू.’

डर्कोमर्कोग्रामी का नाम सुनते ही उसके होश फिर ठिकाने आ गए. आख़िरकार बेचारा बोल ही पड़ा, ‘देख भाई, ये न तो घर का मामला है और न कचहरी का. ये मामला असल में है पार्टी का. आज नहीं तो कल पार्टी में मुझे गूंगे होना ही पड़ेगा. लिहाजा उसकी प्रैक्टिस अभी से शुरू कर दी है.’

’वो क्यों भाई? भला तुझे पार्टी में गूंगा कौन बना सकता है?’ मैने पूछा, ‘मैडम का तू ख़ास भरोसेमन्द है?’

’सो तो हूं’, उसने बताया, ‘लेकिन आज ही से एक नया संकट आ गया है.’

’वह क्या’, मैंने फिर पूछा, ‘क्या तेरे बराबर भरोसा किसी और ने भी जीत लिया है?’

’नहीं भाई, ऐसी भी कोई बात नहीं है.’

‘फिर?’

’असल में आज ही एक नया फ़रमान जारी हुआ है.’

’वह क्या गूंगे होने का फ़रमान है.’

‘ना गूंगे होने का नहीं, वह गूंगे बनाने का फ़रमान है.’

’फ़रमान तो बताओ.’

‘बस यह कि अबसे कोई पार्टी और ख़ास तौर से पार्टी मालिकों के परिवार के सदस्यों के लिए सामंतवादी या कहें राजशाही सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं करेगा. अब कोई किसी को युवराज, राजा, राजमाता, महाराज … आदि-आदि नहीं कहेगा.’

’तो?’

’तुम्ही बताओ, तब अब हम क्या कहेंगे? इस तरह तो हमारी पार्टी के 99 फ़ीसदी कार्यकर्ताओं का सोचना तक बन्द हो जाएगा. बोलने की तो बात ही छोड़ मेरे यार.’

इतना कह कर वह फिर से गहन मौन में चला गया. ऋषि-मुनियों की तरह.

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नेता और चेतना

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 15, 2009

हमारे देश में चीज़ों के साथ मौसमों और मौसमों के साथ जुड़े कुछ धंधों का बड़ा घालमेल है. इससे भी ज़्यादा घालमेल कुछ ख़ास मौसमों के साथ जुड़ी कुछ ख़ास रस्मों का है. मसलन अब देखिए न! बसंत और ग्रीष्म के बीच आने वाला जो ये कुछ-कुछ नामालूम सा मौसम है, ये ऐसा मौसम होता है जब दिन में बेहिसाब तपिश होती है, शाम को चिपचिपाहट, रात में उमस और भोर में ठंड भी लगने लगती है. आंधी तो क़रीब-क़रीब अकसर ही आ जाती है और जब-तब बरसात भी हो जाती है. मौसम इतने रंग बदलता है इन दिनों में कि भारतीय राजनीति भी शर्मसार हो जाए. अब समझ में आया कि चुनाव कराने के लिए यही दिन अकसर क्यों चुने जाते हैं. मौसम भी अनुकूल, हालात भी अनुकूल और चरित्र भी अनुकूल. तीनों अनुकूलताएं मिल कर जैसी यूनिफॉर्मिटी का निर्माण करती हैं, नेताजी लोगों के लिए यह बहुत प्रेरक होता है.

मुश्किल ये है कि ग्लोबीकरण के इस दौर में चीज़ों का पब्लिकीकरण भी बड़ी तेज़ी से हो रहा है. इतनी तेज़ी से कि लोग ख़ुद भी निजी यानी अपने नहीं रह गए हैं. और भारतीय राजनेताओं का तो आप जानते ही हैं, स्विस बैंकों में पड़े धन को छोड़कर बाक़ी इनका कुछ भी निजी नहीं है. सों कलाएं भी इनकी निजी नहीं रह गई हैं. रंग बदलने की कला पहले तो इनसे गिरगिटों ने सीखी, फिर आम पब्लिक यानी जनसामान्य कहे जाने वाले स्त्री-पुरुषों ने भी सीख ली. तो अब वह हर चुनाव के बाद इनकी स्थिति बदल देती है.

इन्हीं दिनों में एक और चीज़ बहुत ज़्यादा होती है और वह है शादी. मुझे शादी भी चुनाव और इस मौसम के साथ इसलिए याद आ रही है, क्योंकि इस मामले में भी ऐसा ही घपला होता है अकसर. हमारे यहां पत्नी बनने के लिए तत्पर कन्या को जब वर पक्ष के लोग देखने जाते हैं तो इतनी शीलवान, गुणवान और सुसंस्कृत दिखाई देती है कि वोट मांगने आया नेता भी उसके सामने पानी भरने को विवश हो जाए. पर पत्नी बनने के तुरंत बाद ही उसके रूप में चन्द्रमुखी से सूरजमुखी और फिर ज्वालामुखी का जो परिवर्तन आता है…. शादीशुदा पाठक यह बात ख़ुद ही बेहतर जानते होंगे.

चुनावों और शादियों के इसी मौसम में कुछ धंधे बड़ी ज़ोर-शोर से चटकते हैं. इनमें एक तो है टेंट का, दूसरा हलवाइयों, तीसरा बैंडबाजे और चौथा पंडितों का. इनमें से पहले, दूसरे और तीसरे धंधे को अब एक जगह समेट लिया गया है. भारत से जाकर विदेशों में की जाने वाली डिज़ाइनर शादियों में तो चौथा धंधा भी समेटने की पूरी कोशिश चल रही है. पर इसमें आस्था और विश्वास का मामला बड़ा प्रबल है. पब गोइंग सुकन्याओं और मॉम-डैड की सोच को पूरी तरह आउटडेटेड मानने वाले सुवरों को भी मैंने ज्योतिषियों के चक्कर लगाते देखा है. इसलिए नहीं कि उनकी शादी कितने दिन चलेगी, यह जानने के लिए कि उन दोनों का भाग्य आपस में जुड़ कर कैसा चलेगा. पता नहीं क्यों, इस मामले में वे भी अपने खानदानी ज्योतिषी जी की ही बात मानते हैं.

तो अब समझदार लोग डिज़ाइनर पैकेजों में ज्योतिषी और पुरोहित जी को शामिल नहीं कराते. होटल समूह ज़बर्दस्ती शामिल कर दें तो उनका ख़र्च भले उठा लें, पर पंडित जी को वे ले अपनी ही ओर से जाते हैं. इसलिए पंडित जी लोगों की किल्लत इस मौसम में बड़ी भयंकर हो जाती है. ऐसी जैसे इधर दो-तीन साल से पेट्रोल-गैस की चल रही है. यह किल्लत केवल शादियों के नाते ही नहीं होती है, असल में इसकी एक वजह चुनाव भी हैं. अब देखिए, इतने बड़े लोकतंत्र में सरकारें भी तो तरह-तरह की हैं. देश से लेकर प्रदेश और शहर और कसबे और यहां तक कि गांव की भी अपनी सरकार होती है. हर सरकार के अपने तौर-तरीक़े होते हैं और वह है चुनाव.
ज़ाहिर है, अब जो चुनाव लड़ेगा उसे अपने भविष्य की चिंता तो होगी ही और जिसे भी भविष्य की चिंता होती है, भारतीय परंपरा के मुताबिक वह कुछ और करने के बजाय ज्योतिषियों के आगे हाथ फैलाता है. तो ज्योतिषियों की व्यस्तता और बढ़ जाती है. कई बार तो बाबा लोग इतने व्यस्त होते हैं कि कुंडली या हाथ देखे बिना ही स्टोन या पूजा-पाठ बता देते हैं. समझना मुश्किल हो जाता है कि मौसम में ये धंधा है कि धंधे में ही मौसम है.

अभी हाल ही में मैंने संगीता जी के ज्योतिष से रिलेटेड ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ा. उन्होंने कहा है कि ‘गत्यात्मक ज्योतिष को किसी राजनीतिक पार्टी की कुंडली पर विश्वास नहीं है.’ मेरा तो दिमाग़ यह पढ़ते ही चकरा गया. एं ये क्या मामला है भाई! क्या राजनीतिक पार्टियों की कुंडलियां भी राजनेताओं के चरित्र जैसी होती हैं? लेकिन अगला वाक्य थोड़ा दिलासा देने वाला था- ‘क्‍योंकि ग्रह का प्रभाव पड़ने के लिए जिस चेतना की आवश्‍यकता होती है, वह राजनीतिक पार्टियों में नहीं हो सकती.’ इसका मतलब यही हुआ न कि वह नहीं मानतीं कि राजनीतिक पार्टियों में चेतना होती है.

अगर वास्तव में ऐसा है, तब तो ये गड़बड़ बात है. भला बताइए, देश की सारी सियासी पार्टियां दावे यही करती हैं कि वे पूरे देश की जनता को केवल राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक और आर्थिक रूप से भी चेतनाशील बना रही हैं. बेचारी जनता ही न मानना चाहे तो बात दीगर है, वरना दावा तो कुछ पार्टियों का यह भी है कि वे भारत की जनता को आध्यात्मिक रूप से भी चेतनाशील या जागरूक बना रही हैं. अब यह सवाल उठ सकता है कि जो ख़ुद ही चेतनाशील नहीं है वह किसी और को भला चेतनाशील तो क्या बनाएगा! ज़ाहिर है, चेतनाशील बनाने के नाम पर यह लगातार पूरे देश को अचेत करने पर तुला हुए हैं और अचेत ही किए जा रहे हैं.

लेकिन संगीता जी यहीं ठहर नहीं जातीं, वह आगे बढ़ती हैं. क्योंकि उन्हें देश के राजनीतिक भविष्य का कुछ न कुछ विश्लेषण तो करना ही है, चाहे वह हो या न हो. असल बात ये है कि अगर न करें तो राजनीतिक चेले लोग जीने ही नहीं देंगे. और राजनीतिक चेलों को तो छोड़िए, सबसे पहले तो मीडिया वाले ही जीना दुश्वार कर दें ऐसे ज्योतिषियों का, जो चुनाव पर कोई भविष्यवाणी न करें. आख़िर हमारी रोज़ी-रोटी कैसे चलेगी जी! जनता जनार्दन तो आजकल कुछ बताती नहीं है. फिर कैसे पता लगाया जाए कि सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा और अगर ये पता न किया जाए तो अपने सुधी पाठकों को बताया कैसे क्या जाए?

जब उन्हें पकड़ा जाता है तब समझदार ज्योतिषी वैसे ही कुछ नए फार्मुले निकाल लेते हैं, जैसे संगीता जी ने निकाल लिए. मसलन ये कि – ‘इसलिए उनके नेताओं की कुंडली में हम देश का राजनीतिक भविष्‍य तलाश करते हैं.’ अब इसका मतलब तो यही हुआ न जी कि नेताओं के भीतर चेतना होती है? पता नहीं संगीता जी ने कुछ खोजबीन की या ऐसे ही मान ली मौसम वैज्ञानिकों की तरह नेताओं के भीतर भी चेतना या बोले तो आत्मा होती है. मुझे लगता है कि उन्होंने मौसम वैज्ञानिकों वाला ही काम किया है. वैसे भी चौतरफ़ा व्यस्तता के इस दौर में ज्योतिषियों के पास इतना टाइम कहां होता है कि वे एक-एक व्यक्ति के एक-एक सवाल पर बेमतलब ही बर्बाद करें. वरना सही बताऊं तो मैं तो पिछले कई सालों से तलाश रहा हूं. मुझे आज तक किसी राजनेता में चेतना या आत्मा जैसी कोई चीज़ दिखी तो नहीं. फिर भी क्या पता होती ही हो! क्योंकि एक बार कोई राजनेता ही बता रहे थे कि वे अभी-अभी अपनी आत्मा स्विस बैंक में डिपॉज़िट करा के आ रहे हैं. इस चुनाव में एक नेताजी ने दावा किया है कि वे उसे लाने जा रहे हैं. पता नहीं किसने उनको बता दिया है कि अब वे पीएम होने जा रहे हैं. क्या पता किसी ज्योतिषी या तांत्रिक ने ही उनको इसका आश्वासन दिया हो. मैं सोच रहा हूं कि अगर वो पीएम बन गए और स्विस बैंक में जमा आत्माएं लेने चले गए तो आगे की राजनीति का क्या होगा?

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जॉर्ज़ ओरवेल, संसद और वाराह पुराण

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 13, 2009

एक ब्लॉगर बंधु हैं अशोक पांडे जी. उन्हें सुअरों से बेइंतहां प्यार हो गया है. इधर कुछ दिनों से वह लगातार सुअरों के पीछे ही पड़े हुए हैं. हुआ यह कि पहले तो उन्होंने अफगानिस्तान में मौजूद इकलौते सुअर की व्यथा कथा कही. यह बताया कि वहां सुअर नहीं पाए जाते और इसकी एक बड़ी वजह वहां तालिबानी शासन का होना रहा है. इसके बावजूद किसी ज़माने सोवियत संघ से बतौर उपहार एक सुअर वहां आ गया था. उस बेचारे को जगह मिली चिड़ियाघर में. पर इधर जबसे अमेरिका में स्वाइन फ्लू नामक बीमारी फैली है, उसे चिड़ियाघर के उस बाड़े से भी हटा दिया गया है, जहां वह कुछ अन्य जंतुओं के साथ रहता आया था. अब उस बेचारे को बिलकुल एक किनारे कर दिया गया है, एकदम अकेले. जैसे हमारे देश में रिटायर होने के बाद ईमानदार टाइप के सरकारी अफसरों को कर दिया जाता है.
कायदे से देखा जाए तो दोनों के अलग किए जाने का कारण भी समान ही है. संक्रमण का. अगर उसके फ्लू का संक्रमण साथ वाले दूसरे जानवरों को हो गया तो इससे चिड़ियाघर की व्यवस्था में कितनी गड़बड़ी फैलेगी इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं. ठीक इसी तरह सरकारी अफसरी के दौरान भी ईमानदारी के रोग से ग्रस्त रहे व्यक्ति को अगर इस फील्ड में आए नए रंगरूटों के साथ रख दिया गया और उन्हें कहीं उसका संक्रमण हो गया तो सोचिए कि व्यवस्था बेचारी का क्या होगा? वैसे सुअर जब झुंड में था तब भी यह सहज महसूस करता रहा होगा, इसमें मुझे संदेह है. क्योंकि इसे सुअरों के साथ तो रखा नहीं गया था. वहां इसके अलावा कोई और सुअर है ही नहीं, तो बेचारे को साथ के लिए और सुअर मिले तो कैसे? इसे अपनी बिरादरी के बाहर जाकर हिरनों और बकरियों के साथ चरना पड़ता था.
अब सच तो यह है कि ईमानदार टाइप के सरकारी अफसर भी बेचारे अपने आपको ज़िंदगी भर मिसफिट ही महसूस करते रहते हैं. उन्हें लगता ही नहीं कि वे अपनी बिरादरी के बीच हैं. बल्कि उनकी स्थिति तो और भी त्रासद है. क़ायदे से वे सरकारी अफसर होते हुए सरकारी अफसरों के ही बीच होते हैं, पर न तो बाक़ी के असली सरकारी अफसर उन्हें अपने बीच का मानते हैं और न वे बाक़ी को अपनी प्रजाति का मानते हैं. हालत यह होती है कि दोनों एक दूसरे को हेय नज़रिये, कुंठा, ग्लानि, अहंकार और जाने किन-किन भावनाओं से देखते हैं. पर चूंकि सरकारी अफसरी में ईमानदार नामक प्रजाति लुप्तप्राय है, इसलिए वे संत टाइप के हो जाते हैं. अकेलेपन के भय से. दूसरी तरफ़, असली अफसर भी कुछ बोलते नहीं हैं, अभी शायद तब तक कुछ बोलेंगे भी नहीं जब तक कि समाज में थोड़ी-बहुत नैतिकता बची रह गई है.
यक़ीन मानें, सुअरों से मैं यहां सरकारी अफसरों की कोई तुलना नहीं कर रहा हूं. अगर कोई अपने जीवन से इसका कोई साम्य देखे तो उसे यथार्थवादी कहानियों की तरह केवल संयोग ही माने. असल बात यह है कि उस सुअर की बात आते ही मुझे जॉर्ज़ ओरवेल याद आए और याद आई उनकी उपन्यासिका एनिमल फार्म. यह किताब आज भी भारत के राजनीतिक हलके में चर्चा का विषय है. ‘ऑल मेंन आर एनिमीज़. ऑल एनिमल्स आर कॉमरेड्स’ से शुरू हुई पशुमुक्ति की यह संघर्ष यात्रा ‘ऑल एनिमल्स आर इक्वल, बट सम एनिमल्स आर मोर इक्वल’ में कैसे बदल जाती है, यह ग़ौर किए जाने लायक है. इसे पढ़कर मुझे पहली बार पता चला कि सुअर दुनिया का सबसे समझदार प्राणी है. अब मुझे लगता है कि वह कम से कम उन दलों से जुड़े राजनेताओं से तो बेहतर और समझदार है ही, जहां आंतरिक लोकतंत्र की सोच भी किसी कुफ्र से कम नहीं है. बहरहाल इस बारे में मैं कुछ लिखता, इसके पहले ही अशोक जी ने जॉर्ज़ ओरवेल के बारे में पूरी जानकारी दे दी.
वैसे सुअर समझदार प्राणी है, यह बात भारतीय वांग्मय से भी साबित होती है. अपने यहां हज़ारों साल पहले एक पुराण लिखा गया है- वाराह पुराण. भगवान विष्णु का एक अवतार ही बताया जाता है – वराह. वाराह का अर्थ आप जानते ही हैं, अरे वही जिसे पश्तो में ख़ांनजीर, अंग्रेजी में पिग या स्वाइन तथा हिन्दी में सुअर या शूकर कहा जाता है. अफगानिस्तान में तो यह प्रतिबन्धित प्राणी है और हमारे यहां भी आजकल इसकी कोई इज़्ज़त नहीं है. पर भाई हमारी अपनी संस्कृति के हिसाब से देखें तो यह प्राणी है तो पवित्र.
अब मैंने ख़ुद तो वाराह पुराण पढ़ा नहीं. सोचा क्या पता कि मास्टर ने ही पढ़ा हो. उससे बात की तो उसने कहा, ‘यार तुम्हें बैठे-बिठाए वाराह पुराण की याद क्यों आ गई?’
ख़ैर मैंने उसे पूरी बात बताई. पर इसके पहले कि वह मेरा गम्भीर उद्देश्य समझ पाता उसने समाधान पेश कर दिया. क़रीब-क़रीब वैसे ही जैसे नामी-गिरामी डॉक्टर लोग मरीज़ के मर्ज को जाने बग़ैर ही दवाई का पर्चा थमा देते हैं. ‘अमां यार क्यों परेशान हो तुम एक सुअर को लेकर? आंय! बुला लो उसको यहीं. अभी नई लोकसभा बनने वाली है. जैसे इतने हैं, वैसे एक और रह लेगा. वैसे भी अभी पूरे देश में इनकी ही बहार है. अपने यहां तो इन्हें तुम चुनाव भर जहां चाहो वहीं देख सकते हो. हां, जीत जाने के बाद फिर सब एक ही बाड़े में सिमट कर रह जाते हैं.’
मास्टर तो अपनी वाली हांक कर चला गया. इधर मैं परेशान हूं. उसने भी वही ग़लती कर दी जो जॉर्ज ओरवेल ने की है. इतने पवित्र जंतु को भला कहां रखने के लिए कह गया बेवकूफ़. मैं उस सुअर के प्रति सचमुच सहानुभूति से भर उठा हूं. सोचिए, भला क्या वहां रह पाएगा वह? अगर उसे पता चला कि वह किन लोगों के साथ रह रहा है? जहां सभी किसी न किसी गिरोह के ज़रख़रीद हैं, जो अपने आका के फ़रमान के मुताबिक बड़े-बड़े मसलों पर हाथ उठाते और गिराते हैं, उसके ही अनुरूप बोलते, चुप रहते या हल्ला मचाते हैं और गिरोह का मुखिया पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही ख़ानदान से चलता रहता है और उस पर तुर्रा यह कि यह दुनिया का सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा लोकतंत्र है ……… ज़रा आप सोचिए, उस पर क्या गुज़रेगी.

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युवराज का संस्कार

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 11, 2009

महाराज का तो जो भी कुछ होना-जाना था, सो सब बीत-बिता गया. वह ज़माना और था. अब की तरह तब न तो नमकहराम जनता थी और न यह लोकतंत्र का टोटका ही आया था. अरे बाप राजगद्दी पर बैठा था, मां राजगद्दी पर बैठी थी, पुश्त दर पुश्त लोग राजगद्दी पर ही बैठते चले आए थे, तो वह कहां बैठते! यह भी कोई सोचने-समझने या करने लायक बात हुई? जिसका पूरा ख़ानदान राजगद्दी पर ही बैठता चला आया हो तो वह अब चटाई पर थोड़े बैठेगा! ज़ाहिर है, उसको भी बैठने के लिए राजगद्दी ही चाहिए. दूसरी किसी जगह उसकी तशरीफ़ भला टिकेगी भी कैसे? लेकिन इस नसूढ़े लोकतंत्र का क्या करें? और उससे भी ज़्यादा बड़ी मुसीबत तो है जनता. आख़िर उस जनता का क्या करें? कई बार तो महारानी का मन ये हुआ कि इस पूरी जनता को सड़क पर बिछवा के उसके सीने पर बुल्डोजर चलवा दें. जबसे लोकतंत्र नाम की चिड़िया ने इस इलाके में अपने पंख फड़फड़ाए हैं, जीना हराम हो गया. और तो और, जनता नाम की जो ये नामुराद शै है, इसका कोई ईमान-धरम भी नहीं है. आज इसके साथ तो कल उसके साथ. ज़रा सा शासन में किसी तरह की कोताही क्या हुई, इनकी भृकुटी तन जाती है. इसकी नज़र भी इतनी कोताह है कि क्या कहें! जो कुछ भी हो रहा है, हर बात के लिए ये सरकार को ही दोषी मान लेती है. स्कूलों की फीस बढ़ गई- सरकार दोषी, बिजली-पानी ग़ायब रहने लगे- सरकार दोषी, महंगाई बढ़ गई- सरकार दोषी, भ्रष्टाचार बढ़ गया- सरकार दोषी, बेकारी बढ़ गई-सरकार दोषी, यहां तक कि सीमा पार से आतंकवाद बढ़ गया- तो उसके लिए भी सरकार दोषी.
इसकी समझ में यह तो आता ही नहीं कि सरकार के पास कोई जादू की छड़ी थोड़े ही है, जो वह चलाए और सारी समस्याएं हल हो जाएं. और फिर सरकार कहां-कहां जाए और क्या-क्या देखे? अरे भाई महंगाई बढ़ गई है तो थोड़ा झेल लो. कोई ज़रूरी है कि जो चीज़ आज दस रुपये की है वह कल भी दस रुपये की ही बनी रहे. कहां तो एक ज़माना था कि तुम्हारे हिस्से सिर्फ़ कर्म करना था. फल पूरी तरह हमारे हाथ में था. हम दें या न दें, यह बिलकुल हमारी मर्ज़ी पर निर्भर था. फिर एक समय आया कि पूरे दिन जी तोड़ मेहनत करो तो जो कुछ भी दे दिया जाता था उसी में लोग संतुष्ट हो लेते थे. पेट भर जाए, इतने से ही इनके बाप-दादे प्रसन्न हो जाते थे.
ऐसा इस देश में सुना जाता था. वरना तो महारानी जिस देश से आई थीं, वहां तो मजदूरी देने जैसी कोई बात ही नहीं थी. मजदूर जैसा भी कुछ नहीं होता था. वहां तो सिर्फ़ ग़ुलाम होते थे. ये अलग बात है कि उनके पूर्वज कभी ग़ुलाम नहीं रहे और न कभी राजा ही रहे, पर उन्होंने सुना है. ग़ुलामों से पूरे दिन काम कराया जाता था और कोड़े लगाए जाते थे. रात में खाना सिर्फ़ इतना दिया जाता था कि वे ज़िन्दा रह सकें. क्योंकि अगर मर जाते तो अपना काम कैसे होता. और फिर वह पैसा भी नुकसान होता जो उन्हें ख़रीदने पर ख़र्च किया गया था. नया ग़ुलाम ख़रीदना पड़ता. और अगर उन्हें ज़्यादा खिला दिया जाता तो तय है कि वे आंख ही दिखाने लगते. इन दोनों अतियों से बचने का एक ही रास्ता था और वह यह कि साईं इतना दीजिए, जामे पेट भराय.
पर मामला उलट गया तब जब उसे इस पेट भराय से ज़्यादा दिया जाने लगा. इतना दिया जाने लगा कि ये खाने के बाद दुख-बिपत के लिए भी लेवें बचाय. तो अब लो भुगतो. यह ग़लती उनकी ससुराल में उनके पतिदेव के पूर्वजों ने किया था. जाने किस मजबूरी में. हालांकि उनसे पूर्व की पूर्व महारानी, यानी उनकी सासू मॉम ने, यह ग़लती सुधारने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी थी. पर वह पूरी तरह सुधार नहीं पाई थीं. उन दिनों निगोड़े विपक्षी बार-बार आड़े आ जाते थे. हालांकि विपक्ष के बहुत बड़े हिस्से को पालतू बनाने की प्रक्रिया भी उन्होंने शुरू कर दी थी. तो विपक्ष तो अब निपट गया, लेकिन ससुरी जनता ही बहुत बेहूदी हो गई. इतनी बेहूदी कि इसकी हिम्मत तो देखिए. यहां तक कि महारानी के लिए फ़ैसलों पर सवाल भी उठाने लगी है.
इसीलिए महारानी के हाथ में जब सत्ता की चाभी आई तो सबसे पहला काम उन्होंने यही किया कि उन सबको सत्ता से बिलकुल दूर ही कर दिया जिनकी पीठ में सात पुश्त पहले तक भी कभी रीढ़ की हड्डी पाई जाती थी. निबटा ही दिया महारानी ने उन्हें. यहां तक कि वज़ीरे-आज़म भी उन्होंने एक ग़ुलाम को बनाया और वह भी ऐसे ग़ुलाम को जो कभी यह सोच भी नहीं सकता था कि उसे कभी इस क़ाबिल भी समझा जा सकता है. वह ख़ुद ही अपने को इस क़ाबिल नहीं समझता था. पहले तो वह बहुत रोया-गिड़गिड़ाया कि महारानी यह आप क्या कर रही हैं? मुझ नाचीज़ को इतनी बेपनाह इज़्ज़त आप बख़्श रही हैं. मैं इसे ढो भी पाउंगा! अरे यह तो मेरे संभाले से भी नहीं संभलेगी.
कुछ परिजनों ने उसकी यह मुश्किल देख महारानी को सलाह भी दी कि मत करें आप ऐसा. कहीं नहीं ही संभाल पाया तो क्या होगा फिर? पर महारानी जानती थीं कि सत्ता में संभालने के लिए होता क्या है! और यह भी कि ऐसा ही आदमी तो उन्हें चाहिए जो सत्ता संभाले, पर उसमें इतना आत्मविश्वास कभी न आए कि वह सत्ता संभाल सकता है. जब कहा जाए कि कुर्सी पर बैठो तो वह हाथ जोड़ कर बैठ जाए और जब कहा जाए कि उठो तो कान पकड़ कर उठ भी जाए. ऐसा आदमी युवराज के रास्ते में कभी रोड़ा नहीं अटकाएगा. जब तक युवराज युवा होते हैं, तब तक राजगद्दी सुरक्षित रहेगी और चलती भी रहेगी. कहीं ग़लती से भी अगर किसी सचमुच के क़ाबिल आदमी को यहां लाकर बैठा दिया तो फिर तो मुसीबत हो जाएगी. वह क्या राजगद्दी सुरक्षित रखेगा हमारे युवराज के लिए? वह तो ख़ुद उस पर क़ाबिज होने की पूरी कोशिश करेगा.
आख़िरकार वज़ीरे-आज़म की कुर्सी का फ़ैसला हो गया. वहां उसे ही बैठा दिया गया जिसे महारानी ने सुपात्र समझा. और महारानी ने उसे कुर्सी पर बैठाने के बाद सबसे पहला काम यही किया कि जनता की भी रीढ़ की हड्डी का निबटारा करने का अभियान शुरू किया. इसके पहले चरण के तहत महंगाई इतनी बढ़ाई गई कि आलू भी लोगों को अनार लगने लगा. इसके बावजूद कुछ घरों में चूल्हे जलाने का पाप जारी रहा. तब चूल्हे जलाने का ईंधन अप्राप्य बना दिया गया. काम का हाल ऐसा किया गया कि लोगों की समझ में गीता का सार आ जाए. अरे काम मिल रहा है, यही क्या कम है! फल यानी मजदूरी की चाह का पाप क्यों करते हो? वैसे भी इस देश में पुरानी कहावत है – बैठे से बेगार भली. तो लो अब बेगार करो.
अब इस बात पर साली जनता बिदक जाए तो क्या किया जाए? पर हाल-हाल में महारानी को मालूम हुआ कि असल में ये जो जनता का बिदकना है उसके मूल में शिक्षा है. तुरंत महारानी ने सोच लिया कि लो अब पढ़ो नसूढ़ों. ऐसे पढ़ाउंगी कि सात जन्मो तक तुम तो क्या तुम्हारी सात पीढ़ियां भी पढ़ने का नाम तक न लें. बिना किसी साफ़ हक़्म के तालीम इतनी महंगी कर दी गई कि पहले से ही दाने-पाने की महंगाई से बेहाल जनता के लिए उसका बोझ उठाना संभव नहीं रह गया. सुनिश्चित कर दिया गया कि जनता राजनीतिक नौटंकी को सच समझती रहे. पर अब भी जनता युवराज को सीधे राजा मान लेने को तैयार नहीं थी. जाने कहां से उसके दिमाग़ में ये कीड़ कुलबुलाने लगा था कि उसका राजा उसके बीच से होना चाहिए. ऐसा जो उसके दुख-दर्द को समझे. महारानी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि ऐसा राजा वे कहां से लाएं? आख़िरकार राजनीतिक पंडितों की आपात बैठक बुलाई गई. पंडितों ने बड़ी देर तक विचार किया. बहस-मुबाहिसा भी हुआ, पर अंतत: कोई नतीजा नहीं निकला. थक-हार कर किसी ने सलाह दी कि ऐसे मामलों से निबटना तो अब केवल एक ही व्यक्ति के बूते की बात है और वह हैं राजपुरोहित. ख़ैर, शाही सवारी तुरंत तैयार करवाई गई और उसे रवाना भी कर दिया गया राजपुरोहित के राजकीय बंगले की ओर. महारानी ने स्वयं अपने सचल दूरभाष से राजपुरोहित का नंबर मिलाया:
‘हेलो’
‘जी, महारानी जी’ ‘प्रनाम पुरोहिट जी!’ ‘जी महारानी जी, आदेश करें.’
‘जी आडेश क्या पुरोहित जी मैं टो बश रिक्वेश्ट कर सकटी हूं जी आपशे.’ ‘हें-हें-हें…. ऐसा क्या है राजमाता. आप आदेश कर सकती हैं.’ ‘जी वो क्या है कि राजरठ आपके ड्वार पर पहुंचता ही होगा. यहां पहुंचिए टब बाटें होंगी.’
इतना कह कर महारानी ने फ़ोन काट दिया और बेचारे राजपुरोहित कंपकंपाती ठंड में राजमाता और उनकी कुलपरंपरा के प्रति नितांत देशज शब्दों में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए जल्दी-जल्दी जनमहल पहुंचने के लिए तैयार होने लगे. जी हां, राजमहल का यह नया नामकरण राजपुरोहित ने ही किया था. एक टोटके के तौर पर. शनिदेव के कोप से राजपरिवार को बचाने के लिए. उनका यह प्रयोग चल निकला था, लिहाजा राजपरिवार में उनकी पूछ बढ़ गई थी और उनकी हर राय क़ीमती मानी जाने लगी थी. ***************************** थोड़ी देर बाद राजपुरोहित महारानी के दरबार में थे. समस्या उन्हें बताई जा चुकी थी और यह भी कि कई सलाहें आ चुकी थीं. सभी महत्वपूर्ण विचारों पर लंबी चर्चा भी हो चुकी थी. पर इस लायक एक विचार भी नहीं पाया गया था जिस पर अमल किया जा सके और जनता को इस बात के लिए मजबूर किया जा सके कि वह युवराज को महाराज मान ले. वैसे जनता के सीने पर बुल्डोजर चलवाया जा सकता है, लेकिन फिर सवाल यह उठता है कि जब जनता ही नहीं रहेगी तो फिर युवराज राज कैसे करेंगे और किस पर करेंगे? फिर तो एक ही विकल्प बचता है कि राज करने के लिए जनता भी सात समुंदर पार से मंगाई जाए. पर उधर से जनता कैसे आएगी? वहां तो जनता की पहले से ही कमी है और दूसरे जो जनता है वह भी बेहद पेंचीदी टाइप की हो गई है. ऐसी कि उसे बात-बात पर राजकाज में मीनमेख निकालने की आदत सी हो गई है.
‘अब जनटा टो हमारे मायके से मंगाई नहीं जा सकती राजपुरोहिट जी और युवराज को अगर वहां भेजें टो शायद इन्हें किशी हेयर कटिंग शैलून में भी काम न मिले.’ राजमाता ने अपनी चिंता व्यक्त की, ‘राजा टो हम इनको यहीं का बना सकटे हैं. और वह भी मुश्किल लग रहा है अभी. टो प्लीज़ कोई रास्टा सुझाइए राजपुरोहिट जी.’
राजपुरोहित थोड़ी देर तो चिंतामग्न मुद्रा में बैठे रहे. फिर उन्होंने पंचांग निकाला. थोड़ी देर तक विचार करते रहे. इसके बाद उन्होंने युवराज की कुंडली मंगाने का अनुरोध महारानी से किया. जैसा कि ऐसे अवसर पर होना ही चाहिए, राजमाता ने इसके लिए किसी राजकर्मी को आदेश नहीं दिया. स्वयं और तुरंत निकाल कर ले आईं और बड़ी श्रद्धापूर्वक राजपुरोहित को सौंप दी. राजपुरोहित ने अपने मोटे चश्मे से कुछ देर तक बड़ी सूक्ष्मता से कुंडली का भी निरीक्षण किया. क़रीब-क़रीब वैसे ही जैसे कोई चार्टर्ड एकाउंटेंट निहारता है किसी बहीखाते को. और अचानक उसमें राहुदेव की स्थिति पर नज़र पड़ते ही उन्होंने ऐसे हुंकार भरी जैसे किसी पेंशनर की फाइल में मामूली सी गड़बड़ पाकर सरकारी बाबू भरते हैं. ‘फ़िलवक़्त यहां स्थिति राहुदेव की गड़बड़ है महारानी.’ ज़ोर से नाक सुड़कते हुए राजपुरोहित ने कहा.
‘टो इशके लिए क्या किए जाने की ज़रूरत है राजपुरोहिट’ राजमाता जानती हैं हैं कि भाग्य को भाग्य के भरोसे छोड़ देने वाले पुरोहित नहीं हैं राजपुरोहित. राजपरिवार का कुत्ता भी कह दे तो बैल का दूध भी निकाल कर दे सकते हैं वह. इसी कैन डू एप्रोच के नाते तो उन्हें यूनिवर्सिटी से उठाकर दरबार में लाया गया.
बहरहाल राजपुरोहित ने थोड़ी देर और लगाई. मोटी-मोटी पोथियों के पन्ने-दर-पन्ने देखते रहे और अंतत: एक निष्कर्ष पर पहुंचे. ‘उपाय थोड़ा कठिन है राजमाता, लेकिन करना तो होगा.’ ‘आप बटाइए. कठिन और आसान की चिंता मट करिए.’
‘है क्या कि युवराज की कुंडली में अबल हैं राहु और लोकतंत्र की कुंडली में प्रबल हैं राहु. तो अब युवराज की कुंडली में अबल राहु को सबल तो करना ही पड़ेगा.’ ’वह कैसे होगा?’ ’देखिए राजमाता, राहु वैसे तो तमोगुणी माने जाते हैं, लेकिन उनकी प्रसन्नता के लिए सरस्वती की पूजा ज़रूरी बताई गई है और सरस्वती की प्रसन्नता के लिए शास्त्रों में विधान है संस्कारों का. पुराने ज़माने में हमारे यहां केवल 16 संस्कार होते थे. उनमें से भी अब तो कुछ संस्कार होते ही नहीं हैं संस्कारों की तरह. कुछ आवेश में निबटा दिए जाते हैं. उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो अब आउटडेटेड हो गए हैं. और कुछ ऐसी भी बातें हैं जिन्हें अब संस्कारों में जोड़ लिया जाना चाहिए, पर अभी जोड़ी नहीं गई हैं.’ ‘हमारे लिए क्या आडेश है?’ राजमाता उनका लंबा-चौड़ा भाषण झेलने के लिए तैयार नहीं थीं.
‘जी!’ राजपुरोहित तुरंत मुद्दे पर आ गए, ‘बस युवराज का एक संस्कार कराना होगा.’ ‘कौन सा संस्कार?’ ‘राजनीतीकरण संस्कार.’
‘वह कैसे होगा?’ किसी भी मां तरह राजमाता ने भी अपनी चिंतामिश्रित जिज्ञासा ज़ाहिर की.
‘जैसे सभी संस्कार होते हैं, वैसे ही यह भी होगा. हर संस्कार के कुछ रीति-रिवाज हैं, कुछ रस्में हैं. इसकी भी हैं. और टोटके भी करने होंगे.’ उन्होंने कहा और फिर राजमाता की ज़रा आश्वस्तिजनक मुद्रा में देखते हुए उन्होंने कहा, ‘इसके रीति-रिवाज थोड़े कड़े हैं. पर उसका भी इंतज़ाम हो जाएगा. आप चिंता न करें.’
‘क्या रीटि-रिवाज हैं इशके?’ ‘वो क्या है कि संस्कार वैसे होते हैं सरस्वती की ही प्रसन्नता के लिए, लेकिन ये मामला लोकतंत्र और उसमें भी राजनीति का है न, तो उसमें ऐसा काम करना पड़ेगा जिससे राहु भी प्रसन्न हों. इसके लिए राजकुमार को जनता जनार्दन यानी दरिद्र नारायण के बीच जाना पड़ेगा.’ ‘ये डरिड्रनारैन क्या चीज़ होटा है?’ ‘राजमाता हमारे देश में जो दरिद्र लोग यानी पूअर पीपल हैं न, उन्हें भी हम भगवान का रूप मानते हैं. इसीलिए हम उन्हें दरिद्रनारायण कहते हैं. और लोकतंत्र में तो राजपाट का सुख ही उनकी सेवा से ही मिलता है. लिहाज़ा उनकी सेवा में युवराज को एक बार प्रस्तुत होना होगा. युवराज को यह जताना होगा कि वह भी उनके ही जैसे हैं और उनके दुख-दर्द को समझते हैं.’ ‘ओह! लेकिन कहीं शचमुच बनना टो नहीं होगा युवराज़ को उनके जैशा.’ ‘नहीं-नहीं. बनने की क्या ज़रूरत है. हमारी संस्कृति की तो सबसे बड़ी विशिष्टता ही यही है कि हम कथनी और करनी को कभी एक करके नहीं देखते. भला सोचिए आपके आदिपूर्वज बार-बार आग्रह करते रहे सच बोलने का, पर अगर ग़लती से भी उन्होंने कभी सच बोला होता तो क्या होता?’ राजपुरोहित ने उदाहरण देकर समझाया, ‘ये तो सिर्फ़ नाटक है. दस-बीस दिन चलेगा. फिर सब सामान्य. राजा तो राजा ही रहेगा.’ ‘टो इश्में युवराज को क्या-क्या करना होगा?’
‘युवराज को कुछ ग़रीबों के बीच जाना होगा. उनसे मिलना-जुलना होगा. कुछ उनके जैसा खाना होगा. उनके जैसे कुछ मेहनत के काम करने होंगे. बस यही और क्या?’ ‘उनके जैसे काम .. मतलब?’ शायद राजमाता समझ नहीं सकीं.
‘अरे जैसे कुदाल चलाना या बोझ ढोना .. बस यही तो, और क्या!’ ‘क्या बाट आप करते हैं राजपुरोहिट? युवराज यह सब कैसे कर सकेंगे?’
‘हो जाएगा राजमाता सब हो जाएगा. उनको कोई बहुत देर तक थोड़े यह सब करना होगा.’ यह दरबार के विशेष सलाहकार थे, जो कई बार राजपुरोहित की मुश्किलें भी हल किया करते थे, ‘सिर्फ़ एक बार कुदाल चलानी होगी और इतने में सारे अख़बार और टीवी वाले फोटो खींच लेंगे. फिर एक बार मिट्टी उठानी होगी और फिर सभी मीडिया वाले फोटो खींच लेंगे और छाप देंगे. दिखा देंगे. बन जाएगा अपना काम.’ ‘ओह!’ राजमाता अब विशेष सलाहकार से ही मुखातिब थीं, ‘टो डेख लिजिएगा. शब हम आप के ही भरोशे शोड़ रए हें.’
‘आप निश्चिंत रहें राजमाता!’ कहने के साथ ही विशेष सलाहकार ने पुरोहित की बनाई सामग्रीसूची वज़ीरे-आज़म को थमा दी थी. इसमें पूजा-पाठ की तमाम चीज़ों के अलावा चांदी की कुदाल एक अदद, सोने की गद्दीदार खांची एक अदद, ख़ास तरह का कैनवस शू एक जोड़ी .. आदि चीज़ें भी शामिल थीं.
उधर राजमाता अपने मायके फ़ोन भी मिला चुकी थीं. असल में साबुनों का वह ख़ास ब्रैंड वहीं मिलता है जिससे शरीर के मैल और कीटाणुओं के साथ-साथ मन के विषाणु भी धुल जाते हैं.

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