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बाज़ार की बाढ़ में फंस गया मीडिया

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on November 11, 2009

हमारा समाज आज बाज़ार और मीडिया के बीच उलझता जा रहा है. बाज़ार भोगवाद और मुनाफे के सिद्धांतों पर समाज को चलाना चाहता है, जबकि मीडिया सरकार की आड़ से अब बाजार की बाढ़ में फंस गया है. यह बात जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के वैश्विक अध्ययन केन्द्र के संयोजक प्रो. आनन्द कुमार ने शहीद भगत सिंह कॉलेज में आयोजित एक संगोष्ठी में कही.
बाजार, मीडिया और भारतीय समाजविषयक इस संगोष्ठी में उन्होंने समाज के सजग लोगों से मीडिया और बाजार दोनों की सीमाओं को नये संदर्भ में समझने का आह्वान करते हुए कहा कि अगर ऐसा न हुआ तो लोकतंत्र के वावजूद मीडिया हमारे समाज में विदुर की जैसी नीतिसम्मत भूमिका छोड़कर मंथरा जैसी स्वार्थप्रेरित भूमिका में उलझती जाएगी. मीडिया का बाजारवादी हो जाना भारत के लोकतंत्र को मजबूत नहीं करेगा.
बीते 4 नवंबर को हुई इस संगोष्ठी में शहीद भगत सिंह कॉलेज के प्राचार्य डॉ. पी.के. खुराना ने स्पष्ट किया कि अर्थव्यवस्था में बदलाव के कारण कैसे बाज़ार मजबूत हुआ है और मानवीय मूल्य निरंतर टूटते जा रहे हैं.
भारतीय जनसंचार संस्थान में हिंदी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम निदेशक डॉ. आनन्द प्रधान ने कहा कि समाचार माध्यमों में देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के बढ़ते दबदबे के कारण समाचारों के चयन, संग्रह और प्रस्तुति पर बाजार का दबाव बढ़ा है और प्राथमिकताएं बदल गई हैं. समाचारों के डबिंग डाउनके कारण उनमें देश और आम लोगों के दुख-दर्द के लिए जगह लगातार सिकुड़ती जा रही है. समाचार माध्यमों पर अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के बढ़ते दबाव के बीच समाचार और विज्ञापन के बीच की दीवार ढह चुकी है और समाचारों की बिक्री और पैकेजिंगकी अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है. उन्होंने समाचार माध्यमों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए मीडिया साक्षरता का अभियान शुरू करने पर जोर देते हुए कहा कि मीडिया में संकेंद्रण और एकाधिकारवादी प्रवृत्तियां लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक संकेत हैं.
अध्यक्षीय वक्तव्य में आलोचक प्रो. तिवारी ने कहा कि बाज़ार, मीडिया और टेक्नोलॉजी उत्तर आधुनिक चिंतन के प्रमुख स्रोत हैं. इसमें समाज, इतिहास और विज्ञान का बहिष्करण किया जा चुका है. ये पद आधुनिक चिंतन के थे और इनके सरोकार ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समाज और मनुष्य से सम्बन्धित थे यानी इस चिंतन में सामाजिक और मानवीय सरोकारों का कोई विशेष अर्थ नहीं है. दूसरी बात कि इन स्रोतों (बाजार, मीडिया, टेक्नोलॉजी)ने ज्ञान को जो सबसे महत्वपूर्ण शास्त्र बनाया, वह प्रबंधन का है. ज्ञान के सामाजिक और दार्शनिक संघटकों को आर्थिक उदारवादी भूमण्डलीकरण ने बहिष्कृत कर दिया है. इस ज्ञान प्रक्रिया ने सबसे बड़ा पाठ विज्ञापन का पैदा किया है. विज्ञापन, विज्ञापित वस्तु की असलियत की जिम्मेदारी नहीं लेता. मानवीय इतिहास में पहली बार किसी पाठ का इतना शक्तिशाली रूप सामने आया है जो बिना ज़िम्मेदारी के इतना प्रभावी और इतना मुनाफ़ा देने वाला है. इस उदारीकृत भूमण्डलीकरण के ज्ञान ने मनुष्य को भूमिकाविहीन बनाकर केवल उपभोक्ता जीव में बदल दिया है. इस बुद्धि और ज्ञान शास्त्र का प्रतिरोध ही एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें मानवीय संभावना बच सकती है. सभा का संचालन डॉ. विन्ध्याचल मिश्र ने किया. डॉ. मिश्र ने भी मीडिया पर बाज़ार के बढ़ते प्रभाव एवं उसके सामाजिक आयामों पर गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़े किए.

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