पल्लवी की मौत की खबर फेसबुक पर दिखी। पुरी खबर को पढ़ा। खबर में लिखा था कि आगरा की रहने वाली पल्लवी ने सच का सामना में रुपा गांगुली वाला एपिसोड देखने के बाद आत्महत्या कर लिया। पूरे खबर को पढ़ कर यह स्पष्ट नहीं हो रहा था कि पल्लवी ने सच का सामना देखने बाद ही आतमहत्या किया है या नहीं। खबरों के मनोवैज्ञानिक प्रभाव के संदर्भ में पल्लवी का मामला मुझे एक गंभीर मामला लग रहा था। इसलिये इस खबर को और जानने के लिए मैंने नेट पर इधर-उधर सर्च करना शुरु कर दिया। नेट पर पल्लवी से संबंधित जितने भी खबर थे, सब की हेडिंग में इस बात का जिक्र था कि पल्लवी ने सच का सामना देखने के बाद आत्महत्या के लिए कदम उठाया। किसी कार्यक्रम को देखकर जब लोग मनोवैज्ञानिक तौर पर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित होते हैं तो जनहित में उस कार्यक्रम पर सवाल उठना जरूरी है।
इस घटना से संबंधित दो तथ्यों से स्थापित हो रहा है कि पल्लवी आत्महत्या करने के कगार पर सच का सामना में रूप गांगुली को देखने और सुनने के बाद पहुंची। अपने सुसाइड नोट में उसने लिखा है कि एक अच्छी मां, और अच्छी पत्नी नहीं बन सकी। खबरों के मुताबिक इसी तरह की बात रुपा गांगुली ने भी इस कार्यक्रम में कहा था। पल्लनी ने अपने सुसाइड खत में यह नहीं कहा है कि वह आत्महत्या सच का सामना देखने के बाद कर रही है, और सामान्यतौर पर वह एसा लिख भी नहीं सकती थी। पल्लवी महेंद्र नाम के किसी व्यक्ति के साथ रह रही थी। महेंद्र का कहना है कि सच का सामना में रुपा गांगुली वाला एपिसोड देखने के बाद वह डिप्रेशन में चली गई थी। पल्लवी का सुसाइड खत और महेंद्र के बयान सच का सामना के औचित्य को कठघड़े में करने के लिए काफी है।
डिप्रेशन के कई स्टेज होते हैं। यदि इनका सही समय पर पता चल जाये तो विधिवत इलाज करके व्यक्ति को डिप्रेशन से निकाला जा सकता है। डिप्रेशन एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। अपने जीवन की व्यक्तिगत उलझनों के कारण पल्लवी पहले से ही डिप्रेशन में थी। अब वह डिप्रेशन के किस स्टेज में थी, इस संबंध में कोई खबर नहीं लिखी गई है। यह भी पता लगाने की कोशिश नहीं की गई है कि वह अपने डिप्रेशन का इलाज किसी मानसिक चिकित्सक से करा रही थी या नहीं। लेकिन इतना तय है कि वह डिप्रेशन में थी। और जब सच का सामना में पैसों का लालच देकर रुपा गांगुली को अपने जीवन से संबंधित कुछ कट्टू निजी स्मृतियों को याद करने के लिये कुरेदा गया तो इसका सीधा रिफ्लेक्शन पल्लवी पर हुया। वह सीधे डिप्रेशन के उस स्टेज में पहुंच गई जहां उसे अपना जीवन निरर्थक लगने लगा।
निसंदेह उस समय सारी दुनिया अपनी गति में चल रही थी। लेकिन ठीक उसी समय पल्लवी के दिमाग में अपने वजूद को खत्म करने का जद्दोजहद भी चल रहा था। हो सकता है यह जद्दोजहद उसके दिमाग में बहुत पहले से चल रहा हो, लेकिन सच का सामना ने उसे जद्दोजहद से निकल कर सीधे आत्महत्या करने के निर्णय तक पहुंचा दिया। पल्लवी के लिए सच का सामना ने उद्दीपक का काम किया है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सच का सामना को लोग पसंद कर रहे हैं। एक झूठ पकड़ने वाली मशीन के सामने लोगों को बैठा कर उनके निजी जिंदगी को कूरेदा जा रहा है। हर व्यक्ति के निजी जीवन के अपने अनुभव और सच्चाईयां होती हैं। पैसों का लालच देकर उन्हें हौट सीट पर बैठाया जा रहा है और फिर एसे सवाल पूछे रहे हैं,जिनका सीधा संबंध उनके निजी अतीत और मनोविज्ञान से है। और पूछे गये सवालों के जवाब का इफेक्ट पल्लवी की मौत के रूप में सामने आ रहा है। अब प्रश्न उठता है कि जब लोग किसी कार्यक्रम को देखकर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं तो उस कार्यक्रम का औचित्य क्या है ? एसे सच का औचित्य क्या है, जो लोगों के दिमाग को नकारात्मक दिशा में सक्रिय कर रहे हैं?
जनहित में किसी भी कार्यक्रम का मूल्यांकन उसकी लोकप्रियता और रेवेन्यू एकत्र करने की उसकी क्षमता से होता है। सच का सामना इन दोनों मापदंडों पर ठीक जा रहा है। इसकी मार्केटिंग स्ट्रेजी भी उम्दा है, और शायद प्रस्तुतिकरण भी। लेकिन इफेक्ट के स्तर पर यह कार्यक्रम लोगों के लिए आत्मघाती साबित हो रहा है। पल्लवी की मौत से हो सकता है इस कार्यक्रम की लोकप्रियता में थोड़ा उछाल आये, लेकिन पल्लवी की तरह की दो चार और लोगों ने आत्महत्या कर लिया तो क्या होगा।
इसके पहले शक्तिमान सीरियल को लेकर भी कुछ इसी तरह का इफेक्ट बच्चों में देखने को मिला था। बच्चे शक्तिमान की तरह ही गोल-गोल नाचते हुये हवा में उड़ने की कोशिश करते हुये यहां वहां से छलांग लगा रहे थे। इसके बाद बच्चों में शक्तिमान के इफेक्ट को रोकने के लिए मुकेश खन्ना को बार-बार अपील करना पड़ा था। यहां तक कि कार्यक्रम के पहले ही वह शक्तिमान के ड्रेस में आते थे और बच्चों को समझाते थे कि वह शक्तिमान जैसी हरकतें नहीं करे।
सच का सामना बच्चों पर नहीं, बड़ों पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। शक्तिमान में तो बच्चे अति उत्साह में आकर शक्तिमान की तरह नकल कर रहे थे, लेकिन सच का सामना तो बड़ों के दिमाग में कुलबुलाने वाले नकारात्मक किटाणुओं सक्रिय कर रहा है। शक्तिमान का प्रभाव आत्मघाती था, लेकिन दिमाग को नकारात्मक दिशा में नहीं ढकेलता था। वह बच्चों के दिमाग को फैन्टसी की दुनिया में ले जाता था। लेकिन सच का सामना बड़ों में अवसाद को और बढ़ा रहा है।
फेसबुक पर पल्लवी के खबर पर मैंने अपनी प्रतिक्रया में सच का सामना का मूल्यांकन इफेक्ट के आधार पर करते हुये इसे जनहित में रोके जाने की बात कही थी। इसमें लोगों के लालच का फायदा उठाकर उनके जीवन को उघाड़ा जा रहा है। हौट सीट पर बैठने के लिए किसी को फोर्स नहीं किया जा रहा है, लेकिन यहां पर बैठाने के लिए भरपूर चारा डाला जा रहा है। आज दोबारा जब फेसबुक खोला तो वहां पर से मेरी प्रतिक्रिया वाली पल्लवी की खबर गायब थी, शायद डिलिट कमांड मार दिया गया। अपनी प्रतिक्रिया को वहां न पाकर मैं इसे फिर से लिखने के लिए प्रेरित हुया हूं। अपनी प्रतिक्रिया को फेसबुक पर डिलिट करने के लिए अपने फेसबुक के उस साथी को कोटि कोटि धन्यवाद देता हूं। सत्मेव जयते!!!!….लेकिन सच से कोई मरता है तो ?
इस घटना से संबंधित दो तथ्यों से स्थापित हो रहा है कि पल्लवी आत्महत्या करने के कगार पर सच का सामना में रूप गांगुली को देखने और सुनने के बाद पहुंची। अपने सुसाइड नोट में उसने लिखा है कि एक अच्छी मां, और अच्छी पत्नी नहीं बन सकी। खबरों के मुताबिक इसी तरह की बात रुपा गांगुली ने भी इस कार्यक्रम में कहा था। पल्लनी ने अपने सुसाइड खत में यह नहीं कहा है कि वह आत्महत्या सच का सामना देखने के बाद कर रही है, और सामान्यतौर पर वह एसा लिख भी नहीं सकती थी। पल्लवी महेंद्र नाम के किसी व्यक्ति के साथ रह रही थी। महेंद्र का कहना है कि सच का सामना में रुपा गांगुली वाला एपिसोड देखने के बाद वह डिप्रेशन में चली गई थी। पल्लवी का सुसाइड खत और महेंद्र के बयान सच का सामना के औचित्य को कठघड़े में करने के लिए काफी है।
डिप्रेशन के कई स्टेज होते हैं। यदि इनका सही समय पर पता चल जाये तो विधिवत इलाज करके व्यक्ति को डिप्रेशन से निकाला जा सकता है। डिप्रेशन एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। अपने जीवन की व्यक्तिगत उलझनों के कारण पल्लवी पहले से ही डिप्रेशन में थी। अब वह डिप्रेशन के किस स्टेज में थी, इस संबंध में कोई खबर नहीं लिखी गई है। यह भी पता लगाने की कोशिश नहीं की गई है कि वह अपने डिप्रेशन का इलाज किसी मानसिक चिकित्सक से करा रही थी या नहीं। लेकिन इतना तय है कि वह डिप्रेशन में थी। और जब सच का सामना में पैसों का लालच देकर रुपा गांगुली को अपने जीवन से संबंधित कुछ कट्टू निजी स्मृतियों को याद करने के लिये कुरेदा गया तो इसका सीधा रिफ्लेक्शन पल्लवी पर हुया। वह सीधे डिप्रेशन के उस स्टेज में पहुंच गई जहां उसे अपना जीवन निरर्थक लगने लगा।
निसंदेह उस समय सारी दुनिया अपनी गति में चल रही थी। लेकिन ठीक उसी समय पल्लवी के दिमाग में अपने वजूद को खत्म करने का जद्दोजहद भी चल रहा था। हो सकता है यह जद्दोजहद उसके दिमाग में बहुत पहले से चल रहा हो, लेकिन सच का सामना ने उसे जद्दोजहद से निकल कर सीधे आत्महत्या करने के निर्णय तक पहुंचा दिया। पल्लवी के लिए सच का सामना ने उद्दीपक का काम किया है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सच का सामना को लोग पसंद कर रहे हैं। एक झूठ पकड़ने वाली मशीन के सामने लोगों को बैठा कर उनके निजी जिंदगी को कूरेदा जा रहा है। हर व्यक्ति के निजी जीवन के अपने अनुभव और सच्चाईयां होती हैं। पैसों का लालच देकर उन्हें हौट सीट पर बैठाया जा रहा है और फिर एसे सवाल पूछे रहे हैं,जिनका सीधा संबंध उनके निजी अतीत और मनोविज्ञान से है। और पूछे गये सवालों के जवाब का इफेक्ट पल्लवी की मौत के रूप में सामने आ रहा है। अब प्रश्न उठता है कि जब लोग किसी कार्यक्रम को देखकर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं तो उस कार्यक्रम का औचित्य क्या है ? एसे सच का औचित्य क्या है, जो लोगों के दिमाग को नकारात्मक दिशा में सक्रिय कर रहे हैं?
जनहित में किसी भी कार्यक्रम का मूल्यांकन उसकी लोकप्रियता और रेवेन्यू एकत्र करने की उसकी क्षमता से होता है। सच का सामना इन दोनों मापदंडों पर ठीक जा रहा है। इसकी मार्केटिंग स्ट्रेजी भी उम्दा है, और शायद प्रस्तुतिकरण भी। लेकिन इफेक्ट के स्तर पर यह कार्यक्रम लोगों के लिए आत्मघाती साबित हो रहा है। पल्लवी की मौत से हो सकता है इस कार्यक्रम की लोकप्रियता में थोड़ा उछाल आये, लेकिन पल्लवी की तरह की दो चार और लोगों ने आत्महत्या कर लिया तो क्या होगा।
इसके पहले शक्तिमान सीरियल को लेकर भी कुछ इसी तरह का इफेक्ट बच्चों में देखने को मिला था। बच्चे शक्तिमान की तरह ही गोल-गोल नाचते हुये हवा में उड़ने की कोशिश करते हुये यहां वहां से छलांग लगा रहे थे। इसके बाद बच्चों में शक्तिमान के इफेक्ट को रोकने के लिए मुकेश खन्ना को बार-बार अपील करना पड़ा था। यहां तक कि कार्यक्रम के पहले ही वह शक्तिमान के ड्रेस में आते थे और बच्चों को समझाते थे कि वह शक्तिमान जैसी हरकतें नहीं करे।
सच का सामना बच्चों पर नहीं, बड़ों पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। शक्तिमान में तो बच्चे अति उत्साह में आकर शक्तिमान की तरह नकल कर रहे थे, लेकिन सच का सामना तो बड़ों के दिमाग में कुलबुलाने वाले नकारात्मक किटाणुओं सक्रिय कर रहा है। शक्तिमान का प्रभाव आत्मघाती था, लेकिन दिमाग को नकारात्मक दिशा में नहीं ढकेलता था। वह बच्चों के दिमाग को फैन्टसी की दुनिया में ले जाता था। लेकिन सच का सामना बड़ों में अवसाद को और बढ़ा रहा है।
फेसबुक पर पल्लवी के खबर पर मैंने अपनी प्रतिक्रया में सच का सामना का मूल्यांकन इफेक्ट के आधार पर करते हुये इसे जनहित में रोके जाने की बात कही थी। इसमें लोगों के लालच का फायदा उठाकर उनके जीवन को उघाड़ा जा रहा है। हौट सीट पर बैठने के लिए किसी को फोर्स नहीं किया जा रहा है, लेकिन यहां पर बैठाने के लिए भरपूर चारा डाला जा रहा है। आज दोबारा जब फेसबुक खोला तो वहां पर से मेरी प्रतिक्रिया वाली पल्लवी की खबर गायब थी, शायद डिलिट कमांड मार दिया गया। अपनी प्रतिक्रिया को वहां न पाकर मैं इसे फिर से लिखने के लिए प्रेरित हुया हूं। अपनी प्रतिक्रिया को फेसबुक पर डिलिट करने के लिए अपने फेसबुक के उस साथी को कोटि कोटि धन्यवाद देता हूं। सत्मेव जयते!!!!….लेकिन सच से कोई मरता है तो ?