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मुझे तुमसे सहानुभूति है स्वीडन!

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on August 31, 2020

इष्ट देव सांकृत्यायन

भारत तो खैर, बहुत पुराना भुक्तभोगी है… लेकिन एक भारत ही है जो इतना पुराना भुक्तभोगी होकर भी आज तक संघर्षरत रहने की औकात में है। यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहां से… यकीन मानिए ये सब मिट ही गए… वाकई मिट गए जहां से। आपके होने का अर्थ केवल आपका होना नहीं होता, अगर आप मनुष्य हैं तो। आपके होने का अर्थ है आपके वास्तविक इतिहास का होना, आपके लोक का होना.. अपनी सभी गाथाओं, गीतों, रीति-रिवाजों, पकवानों, पहनावों के साथ… आपके पूरे भूगोल का होना, आपकी अपनी अर्थव्यवस्था का होना… यानी आपकी संपूर्ण अस्मिता का अपनी संपूर्ण इयत्ता के साथ होना।

Sweden riots: What triggered violence in southern city of Malmo? Who is  Rasmus Paludan? - Republic World
स्वीडन का हाल छायाचित्र साभार: गूगल

और उतना ही सच यह भी है कि यदि आप मनुष्य हैं तो दूसरों को मिटाने के बारे में आप कभी नहीं सोच सकते। क्योंकि किसी को मिटाने की सोच ही किसी बहुत गहरी कभी न भरी जा सकने वाली हीनता ग्रंथि से आती है। एक ऐसी ग्रंथि से जो व्यक्ति को पहले ही यह मानने के लिए बाध्य कर चुकी होती है कि वह संसार का सबसे कायर, सबसे अयोग्य और सबसे अक्षम व्यक्ति है। अन्यथा एक मनुष्य ही है जिसे यह बात बहुत अच्छी तरह पता है कि प्रकृति ‘केवल’ शब्द बर्दाश्त ही नहीं कर सकती। ‘केवल’ अर्थात् ‘एक’। 

प्रकृति अत्यंत सहिष्णु है। वह सब कुछ सह लेती है। केवल एक बात नहीं सह पाती और वह है असहिष्णुता। असहिष्णुता के प्रति प्रकृति अत्यंत असहिष्णु है। असहिष्णुता चाहे किसी की भी हो, कैसी भी हो… प्रकृति नहीं सह सकती। उसकी वजह है। जिस दिन प्रकृति ने असहिष्णुता को सहना सीख लिया, उस दिन वह और कुछ भी हो, प्रकृति नहीं रह जाएगी। क्योंकि यह प्रकृति की ही प्रकृति के विरुद्ध है। और ‘केवल’ शब्द इसी ‘असहिष्णुता’ का हरकारा है, अग्रगामी। चाहें मार्गरक्षक या अनुरक्षक कह लें।

परिवार हो या कुटुंब, गांव या शहर, प्रांत या देश, द्वीप महाद्वीप या विश्व… समुदाय या समाज… पहले यह ‘केवल’ शब्द ही पहुंचता है किसी जगह। यह जाकर यह सूचना देता है कि भाई मेरे पीछे-पीछे असहिष्णुता जी आ रही हैं। चाहो तो अभी सचेत हो लो, बाद में तो जो करना होगा, वही करेंगी। तुम्हारे बस में कुछ करना नहीं रह जाएगा।

‘केवल’ अपने को ही पढ़े-लिखे मानने वाले कुछ लोग इसी को फ़ासिज़्म कहते हैं। लेकिन विडम्बना देखिए.. केवल बुद्धिजीविता और विद्वता ही नहीं, उदारता और सहिष्णुता के भी सबसे बड़े ‘इकलौते’ ठेकेदार आज वे हैं जिनका प्रस्थान बिंदु ही है…   केवल मैं ही सही, बाक़ी सब ग़लत… केवल मेरा तर्क ही तर्क [चाहे वह कितना भी भोथरा और थेथर क्यों न हो] बाक़ी सब कुतर्क… एक मेरी बात ही वैज्ञानिक [चाहे उनका विज्ञान के व से भी कभी कोई मतलब न रहा हो] बाकी सब अवैज्ञानिक, एक मैं ही विद्वान, बाकी सब निरे मूर्ख, जाहिल, गंवार… 

Riots rock Malmö after far-right Swedish activists burn Qur'an | Sweden |  The Guardian
जिनने बनाया कुछ नहीं, उनका फूँकने में क्या जाता!

वे यह बात बर्दाश्त ही नहीं कर सकते कि ‘केवल उन्हें’ छोड़कर किसी और के पास ‘कुछ भी तय करने’ का अधिकार हो। मानदंड सारे वे बनाएंगे और यहाँ तक कि उनके अपने बनाए हुए मानदंडों पर ही कुछ भी तय करने का अधिकार तक किसी और को नहीं होगा। तय भी वही करेंगे। इसके बाद भी अगर कहीं असुविधा हो गई तो अपने निर्णय से पलटते भी उन्हें देर नहीं लगेगी। जो लोग कठुआ मामले से विशाल जंगोत्रा का कोई संबंध स्थापित न कर पाने और उसके निर्दोष होने के सबूत सहारनपुर के एटीएम से लेकर परीक्षाहाल और परिवारों तक के देने के बावजूद कुछ भी मानने के लिए तैयार नहीं थे और उसका पक्ष रखने वालों को दुनिया भर में बदनाम करने का सुनियोजित रूप से फंडेड अभियान चला रहे थे, आज वही एक हाई प्रोफाइल हत्या में शामिल  होने के अनेक स्पष्ट साक्ष्यों से घिरी औरत को वीआइपी ट्रीटमेंट देते हुए इंटरव्यू के नाम पर वास्तव में सीबीआइ, पुलिस और कोर्ट के खिलाफ मीडिया ट्रायल कर रहे हैं। जरा सोचिए, क्या इतना सब होने के बाद भी शर्म शब्द की प्रासंगिकता इस दुनिया में शेष है। अब सुशांत सिंह राजपूत के ज़िंदा रहने की ख़बर भले कहीं से अचानक आ जाए, पर शर्म ने तो निश्चित है कि वह इंटरव्यू देखने के बाद आत्महत्या कर ली।

जैसे ‘शर्म’ शब्द ने अब आत्महत्या की, ठीक उसी तरह सहिष्णुता शब्द ने उसी दिन आत्महत्या कर ली थी जिस दिन पहली बार धरती पर किसी व्यक्ति ने कहा कि केवल यही ईश्वर है, इसके अलावा और कोई नहीं… केवल यही एक किताब है, इसके अलावा और कोई नहीं… केवल यही एक अंतिम दूत है, इसके अलावा और कोई नहीं। लेकिन इस ‘केवल’ को वह यूरोप रोक किस मुंह से सकता था जिसने अपना ‘केवल’ स्थापित करने के लिए बाकायदा क्रूसेड वॉर चलाया है? उस यूरोप में इतना नैतिक साहस कहां से आएगा जिसने अपने आँगन में अपने बहुत पहले से हँसते-खेलते सहास्तित्व में जीते रहे हजारों पैगन [बहुदेववादी] समुदायों को समूल नष्ट करने के लिए ही सैकड़ों बौद्धिक एवं सशस्त्र षडयंत्र किए! सब कुछ के बावजूद जब उन्हें पता चला कि पैगन लोगों के देवताओं से जुड़े रीति-रिवाज तो पुरुष निभाते ही नहीं हैं। यह गुरुतर दायित्व और इससे संबंधित सारे लोकाचारों के अधिकार तो वहां स्त्री को है और इस तरह स्त्री वहां अपने आप प्रधान हो जाती है… तो उनकी शैतानी खोपड़ी ने शैतान को ही अस्त्र बना डाला। विधिवत् प्रचार किया गया कि इनकी औरतें डायन हैं और डायन होने के बहाने लाखों स्त्रियां जलाकर मारी गईं। यह काम कोई अनपढ़ गंवारों ने नहीं किया, ऐसी एक लाख से अधिक बर्बर हत्याएं वहां के माननीय न्यायालयों के पवित्र निर्णय निर्देश में हुई हैं। बाद में विधिक रूप से रोक लगने के बावजूद डायन होने के नाम पर छिटपुट हत्याएं तो 20वीं के अंत तक होती रहीं और नवीनतम ज्ञात मामला तो सन 2005 का है, उस रूस का जो पीछे सात दशक अपने को नास्तिक बताने वाले कम्युनिस्ट शासन के अधीन रह चुका था।

Sweden Riots ; 10 arrested,several injured in violence after an anti-Muslim  politician was blocked from attending a Quran-burning rally!!!! – East  Coast Daily English
सिर छुपाने को जगह दी घर जलाकर तापने लगे साभार: गूगल

यह किसी और चीज की देन नहीं थी। यह उसी ‘केवल ईश्वर’, ‘केवल ग्रंथ’ और ‘केवल दूत’ का परिणाम है। आज के यूरोप का जो ओढ़ा हुआ उदारवाद है, वह कुछ और नहीं उन्हीं पापों को ढकने का एक पाखंड मात्र है। यूरोप की धरती पर एक बड़ा वर्ग है जो इस पाखंड के यथार्थ के साथ-साथ इसके दूरगामी परिणाम को भी समझता है। वह अपनी मेहनत, अपने खून-पसीने से सींची हुई धरती को सुरक्षित रखने के लिए हर तरह की बदनामी सहकर भी नाली के कीड़ों को अपने खाद्यान्न भंडार में घुसने नहीं देना चाहता था।

लेकिन मुफ्तखोर कहां नहीं होते! और उससे बड़ा सच यह कि मुफ्त में आज तक किसी को मिला क्या है! मगर वोट का अधिकार तो सबको है और सबका वोट बराबर भी है। अब वह चाहे लाखों रुपए कर देने वाले का हो या फिर लाखों रुपए अनुदान खाने वाले का। तो स्वीडन में मेहनत के वोट बिखरे और अनुदान के वोटों ने बाजी मारी।

यह कोई अचानक नहीं हुआ है। तुम्हारी राजनीति तो बीती सदी के सातवें दशक में जोनाथन स्विफ्ट रचित लापुता द्वीप के हवाले हो चुकी थी। यह उसी लापुटा द्वीप से चलने वाले घटनाक्रमों का नतीजा है। ऐसा नहीं है कि घरेलू वास्तविकता या अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य से तुम अछूते, अप्रभावित या अनजान थे। हमसे बेहतर तुम वह सब जान रहे थे। फ्रांस, बेल्जियम, पोलैंड, इजरायल, जर्मनी… इन सब देशों से तुम्हारा जमीनी संपर्क है। लेकिन ख़ैर… सीख देना ही प्रकृति के हाथ में है, लेना या न लेना तो व्यक्ति पर निर्भर है।

चाहे ओढ़ी हुई ही सही, सदाशयता आखिरकार सदाशयता होती है। कड़वी यादें दोहराने और तल्ख अंदाज में कड़वा सच कहने के लिए क्षमा चाहता हूं। मुझे वाकई तुमसे सहानुभूति है स्वीडन और तुम्हारे साथ-साथ तुम्हारे सगे पड़ोसी नॉर्वे से भी, लेकिन सच तो यही है कि तुम्हारा भविष्य अब केवल तुम्हारे हाथ में है। यह निर्णय तुम्हे ही लेना पड़ेगा कि तुम्हे अपने बच्चे पालने हैं या फिर केवल नाली के कीड़े! याद रखना, ये कोई मामूली कीड़े नहीं हैं। ये वे गंदे कीड़े हैं जो दुनिया भर से लतियाकर भगाए गए हैं और अंततः अपने उन रिश्तेदारों के भी तलवों तक के नीचे जगह नहीं पा सके जिनके नाम की ये कसमें खाते हैं। देखो न, आज तो तुम्हारा पड़ोसी नॉर्वे भी इन्हें भुगत रहा है।

#IshtDeoSankrityaayan #Sweden #Norway #Refugees  

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