अपने अक्ष पर घुमती हुई पृथ्वी कभी स्थिर हो सकती है….? फिर मैं कैसे……..??
मैं तो घूमता रहा और थकता रहा…..
अनकही खामोशियों में तुम थी…
नींद मर्ज है…यह कहकर तुने मुझे सुला दिया……
कई छोटे छोटे अनु-सपने आते-जाते रहे…
मैं नींद में बेशुध रहा…गहरी नींद…अति गहरी…
न जाने कब सपनों ने भी आना छोड़ दिया…..
नर्म मुलायम नींद में डूबते हुये अंतिम नींद तक सोया….सारी थकान जाती रही…
सुबह बारिश के झोंके पृथ्वी पर बरस रही थी…
बादल के गुच्छे मूड में थे…बस बरसे जा रहे थे…
आंख खुलने से पहले तुमने कुछ कहा…फिर ओझल हो गई….
रात की दुपहरिया में खजुराहो पीछे छूट गया था…
अनकही खामोशियों से गुजरते हुये…मैं इनमें अर्थ तलाशता रहा…
अर्ध चेतना में तो तुम भी थी…और मैं भी…
बेहतर होता बिना मंजिल के भटकना….या फिर पूर्ण चेतना में होना…..
अनकही खामोशियों में क्या था…..? कोई ठहरी हुई सी चीज….या फिर ठहराव के नीचे कोई बहती हुई सी चीज….??
पृथ्वी के साथ तुम भी मेरी आंखों में घुम रही हो…….अनकही खामोशियों की तरह।
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अनकही खामोशियां
Posted by Isht Deo Sankrityaayan on July 5, 2009
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