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Archive for the ‘यात्रा वृत्तान्त’ Category

यात्रा क्षेपक

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on May 28, 2010

–हरिशंकर राढ़ी
मैं अपनी यात्रा जारी रखता किन्तु न जाने इस बार मेरा सोचा ठीक से चल नहीं रहा है। व्यवधान हैं कि चिपक कर बैठ गए हैं। खैर, मैं कोडाईकैनाल से मदुराई पहुँचूँ और आगे की यात्रा का अनुभव आपसे बांटूं , इस बीच में एक क्षेपक और जुड़ जाता है। इस क्षेपक का अनुभव और अनुभूतियां मुझे उस लम्बी यात्रा को रोककर बीच में ही एक और प्रसंग डालने पर बाध्य कर रही हैं। ऐसा कुछ खास भी नहीं हुआ है। बात इतनी सी है कि इस बार भी गर्मियों में गाँव जाना ही था। दिल्ली से पूर्वी उत्तर प्रदेश की यात्रा , ट्रेन की भीड -भाड , मारा-मारी , भागमभाग और उबालती गर्मी भी इस वार्षिक यात्रा को रोक नहीं पाते। आरक्षण लेने में थोड़ी सी देर हो गर्ई।हालांकि इसे देर मानना ठीक नहीं होगा। अभी भी निश्चित यात्रा तिथि में ढाई माह से ज्यादा का समय था। पता नहीं रेल मंत्रालय को ऐसा क्यों लगता है कि लोग अपने जीवन की सारी यात्राओं की समय सारणी बनाकर बैठे हैं और अग्रिम आरक्षण की समय सीमा तीन माह कर देना लोगों के हित में रहेगा! शायद पूर्व रेलमंत्री श्री लालू प्रसाद यादव का तथाकथित कुशल प्रबंधन यही हो। तीन माह पहले ही ही जनता के पैसे (बिना ब्याज) रेलविभाग में जमा ! यह बात उस समय मुझे ज्यादा अखरी थी जब सितम्बर में होने वाली दक्षिण भारत की यात्रा हेतु जुलाई के प्रारम्भ में ही बाईस हजार रुपये का टिकट लेकर बैठना पड़ा । तीन माह पूर्व जमा पैसों से रेलवे को ब्याज के रूप में कितना फायदा होता होगा, यह तो रेल विभाग ही बता सकता है। दूसरी बात यह कि इस बीच कितने लोगों का कार्यक्रम रद्द होता होगा और आरक्षण के निरस्तीकरण से कितनी आय होती होगी ( और यात्री का कितना नुकसान होता होगा !) यह भी विभाग ही जाने ! पर, बात यही कि दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा ।
खैर, यात्रा तो करनी ही थी। अपने गृह जनपद आजमगढ़ की रेल गाड़ी भर चुकी थी । बहुत दिनों से सोच रहा था कि काशी विश्वनाथ के दर्च्चन कर लूँ तो अच्छा रहे। बहुत पहले , शायद १९८८ के अन्त में दर्शन किया था । बनारस भी थोडा घूम लूँगा। पिछले वर्ष भी बनारस होकर ही गया था परन्तु घर पहुँचने की जल्दी थी। इण्टरनेट पर सर्च किया तो पता लगा कि वाराणसी गरीबरथ में वांछित तिथि को आरक्षण उपलब्ध था। निःसन्देह यह एक अच्छी गाड़ी है और इसमें यात्रा करना सुखद होता है।
यात्रा का निश्चित दिन आ गया । अब रेल विभाग की एक और योजना की बानगी देखिए। नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली स्टेशन से भीड़ कम करने के लिए दिल्ली से बाहर टर्मिनस बनाए जा रहे हैं। आनन्द विहार , सराय रोहिल्ला, कैण्ट आदि ऐसे ही कुछ स्टेशन हैं जहाँ अभी दो तीन साल पहले तक दो चार रेलगाडि याँ भी नहीं रुकती थीं वही अब टर्मिनस बन रहे हैं और वह भी गरीब रथ जैसी प्रतिष्ठित गाडि यों के लिए। यहाँ एक बात समझ नहीं आती कि नीति निर्धारकों को बहुत महीन बातें तो दिख जाती हैं किन्तु मोटी- मोटी बातें क्यों नहीं? दो- चार गाडि यों को मुखय दिल्ली से बाहर धकिया देने से दिल्ली जंक्शन की भीड कम नहीं होने वाली। अभी जो भी एक्सप्रेस और सुपरफास्ट ( तथाकथित ) गाडि याँ दिल्ली आती हैं उनमें से दिल्ली के उपनगरीय और इन नवान्वेषित टर्मिनसों पर क्षण भर के लिए भी नहीं ठहरतीं। पूरब से आने वाली गाडि याँ , जो प्रायः कई-कई घंटे लेट होती हैं, दादरी , मारीपत और वैर स्टेशन पर दो-दो घंटे सिगनल के लिए खड़ी रहती हैं , वे ही गाजियाबाद जैसे महत्त्वपूर्ण ठहराव पर दो मिनट के लिए नहीं रुकतीं ! बहुत से यात्री गाजियाबाद, साहिबाबाद और पूर्वी दिल्ली के होते हैं और वे अपना माल- असबाब लेकर टकटकी लगाए रहते हैं कि काश जरा से रुके और हम उतर लें। दिल्ली तक जाना और आना, ऑटो का किराया और झिकझिक या बस की धक्का-मुक्की से बच जाएं । पर नहीं , यहाँ जैसे रेल विभाग को याद आ जाता है कि यह गाड़ी तो एक्सप्रेस या सुपरफास्ट है! इसे तो रोका ही नहीं जा सकता !
बड़ी छोटी सी और सीधी सी बात है कि यदि पूरब से आने वाली गाडि यों गाजियाबाद, आनन्दविहार, विवेक विहार, शाहदरा ; दक्षिण की गाडि यों को फरीदाबाद, बदरपुर , तुगलकाबाद या गुड गाँव एवं पालम जैसे स्टेशन पर क्षणिक ठहराव दे दिया जाए तो यात्रियों को भी सुविधा हो और अनावश्यक भीड से बचाव भी हो जाए।
अब अपनी गरीब रथ भी सरकार की इस योजना की शिकार है। गाड़ी शाम को लगभग छः बजे छूटती है, वही अपने आनन्द विहार से जो कहने को तो दिल्ली में है पर इसके बाद दिल्ली नहीं है। अपने मेहरौली से पूरे तीस किलोमीटर की दूरी पर! नाचीज यूँ भी कोई वीआईपी नहीं और न ही वीआईपीपने का कोई मानसिक रोग पालता। अतः ढाई बजे की धूप में निकलने की ठान लेता है। क्या पता अपनी दिल्ली के ट्रैफिक का ? कोई रिस्क नहीं लेना . अब इसमें कुछ खास नहीं, ऑटो वाला सारे नियमों की धज्जियाँ उडाता तीस किमी बस सवा घंटे में पहुँचा देता है।
अगले दिन समयपूर्व ही वाराणसी पहुँच जाता हूँ। वाराणसी कैण्ट स्टेशन पर बाहर प्रांगण में श्रीमती जी एवं बच्चों को छोड़कर होटल की तलाश में निकल जाता हूँ। ज्यादा दूर नहीं, सड क के उस पार ही कई होटल, लॉज और गेस्ट हाउस है। आते- जाते देख रखा है और अभी भी दिख रहे हैं। मुझे इन्हीं में कोई ले लेना है। रात भर की बात है। थोडा साफ-दाफ हो, हवा पानी हो । बिजली भी होनी चाहिए। गर्मी सहन नहीं होती। स्टेशन के गेस्ट हाउस महंगे होते हैं , यह मुझे पता है पर इनमें एक सुविधा है कि पहुचँने में आसानी होती है। अगली सुबह बस पकड नी है और बस स्टेशन पास में है। किसी लेखक- कवि मित्र को बुलाना है मिलने के लिए तो भी आसान। वैसे बनारस में कुछ रिश्तेदार भी हैं। उनके यहाँ भी जा सकता हूँ! पर हिसाब लगाता हूँ तो होटल में ही फायदा और आजादी है और मेरे जैसे घुमक्कड को आजादी जरूर चाहिए। सड क पार एक गेस्ट हाउस मिल जाता है- चार सौ रुपये में और परिवार सहित मैं जम जाता हूँ।
आज की यात्रा यहीं तक । कुछ बोरिंग थी , तथ्यात्मक थी । आगे बनारस के रंग में डूबता हूँ ; पर उसका विवरण दूसरी किश्त में , अन्यथा आप भी बोर हो जाएंगे ।

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पोंगापंथ अपटु कन्याकुमारी -5

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on January 14, 2010

( मेरी यात्रा मदुराई तक पहंची थी, उसका वर्णन मैंने किया था। उसके बाद वास्तविक यात्रा तो नहीं रुकी किन्तु उसका वर्णन रुक गया।इस बीच में कुछ तो इधर – उधर आना जाना रहा और कुछ कम्प्यूटर महोदय का साथ न देना। पहले विण्डोज उड़ीं और फिर लम्बे समय तक इण्टरनेट नहीं चला! अब लगता है कि सब कुछ ठीक है और मैं फिर यात्रा पर निकल चुका हूँ , इस बार आपके साथ और यात्रा पूरी करने का पूरा इरादा है।)

मदुराई पहुंचे तो दोपहर के करीब बारह बज रहे थे। लगभग तीन सौ किमी की दूरी तय करने में करीब साढ़े सात घंटे लग गए जबकि ट्रेन एक्सप्रेस थी, खैर मुझे भारतीय रेल का चरित्र ठीक से मालूम है इसलिए हैरानी की कोई बात नहीं लगी। वहां पहुचे तो हम सभी थके थे , रात के जागरण का असर साफ दिख रहा था। अब हमारी प्राथमिकता थी कि कोई होटल लें और कुछ देर विश्राम करें । बाहर ऑटो वालों से बात हुई। मित्र ने कहा कि पहले चल के होटल देख आएं और फिर परिवार को ले जाएं। रात की घटना से सीख लेकर मैं उबर चुका था और अब गलती दुहराने की मूर्खता नहीं कर सकता था। अतः इस प्रस्ताव को मैंने सिरे से नकार दिया।ऑटो वाले से बात की और मीनाक्षी मंदिर के पास ही जाकर एक होटल में ठहर गए। नहा-धोकर ताजा होने के बाद ही हमारा अगला कार्यक्रम हो सकता था।मदुराई के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था और आज यह सोचकर मैं बहुत खुश था कि भारत के एक अत्यन्त प्राचीन नगर पहुँच पाने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका था । थोड़ी देर के आराम के बाद हम मीनाक्षी मंदिर के दर्शन के लिए चल दिए।

मदुराई भारतवर्ष के प्राचीनतम नगरों में एक है। दक्षिण भारत का यह सबसे पुराना नगर है और विशेष बात तो यह है कि अभी भी इसकी प्राचीनता बरकरार है। वैगाई नदी के किनारे बसे इस नगर की ऐतिहासिकता और सौन्दर्य अक्षुण्ण और अनुपम है। इस नगर की संस्कृति और सभ्यता सदियों पुरानी है । प्राचीन विश्व के अतिविकसित यूनान और रोम से इसके व्यापारिक संबंध थे, मेगास्थनीज भी तीसरी सदी (ई0पू0) में मदुराई की यात्रा पर आया था।मदुराई संगम काल के समय से एक स्थापित नगर है , पहले पांड्य वंश की राजधानी रहा और चोल शासकों ने दसवीं सदी में इस पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था।मदुराई मूलतः मीनाक्षी मंदिर के कारण टेम्पल टाउन के नाम से जाना जाता है। यह शहर मंदिर के चारो ओर बसा हुआ है।मंदिर के चारो ओर आयताकार रूप में सड़के बनी हुई हैं। इन गलियों के नाम तमिल महीनों के नाम पर रखे गए हैं।मीनाक्षी मंदिरजहाँ हम रुके थे , उस होटल से मीनाक्षी मंदिर पैदल पाँच मिनट का रास्ता था। हमें यह पता चला कि मंदिर सायं पांच बजे दर्शनार्थ खुलता है। अस्तु हम यथासमय मंदिर के लिए निकल पड़े।मंदिर का गोपुरम मदुराई के किसी भी कोने से दिख जाए, इतना विशाल है। इस पर दृष्टि पड़ते ही मन मुग्ध हो गया । मंदिर में चारों दिशाओं से प्रवेश के लिए चार गोपुरम (प्रवेश द्वार) है। हम पूर्वी गोपुरम से प्रवेश कर रहे थे और यह गोपुरम सबसे शानदार है। मंदिर में प्रवेश से पूर्व सामान्य सुरक्षा जांच होती है किन्तु कोई खास प्रतिबंध मुझे नहीं दिखा। हमें मोबाइल फोन अंदर ले जाने से भी नहीं रोका गया। मंदिर की विशालता में एक बार अलग हो जाने पर यही मोबाइल काम आया।

मंदिर में एक सामान्य सी लाइन दिख रही थी, कुछ खास समझ में न आने कारण हम आगे बढ़ गए, इस विचार से कि अन्दर जाकर व्यवस्था के अनुरूप हम भी दर्शनार्थ पंक्तिबद्ध हों। कुछ अपने स्तर पर करें , इससे पूर्व ही कोई मंदिर कर्मचारी ( जो हमारे रंगरूप और शारीरिक भाषा से समझ गया था कि हम उत्तर भारतीय हैं ) भागा हुआ आया और निर्देश दिया कि अगर हमें दर्शन करना है तो निकट ही बने बूथ से प्रति व्यक्ति पंद्रह रुपये की दर से टिकट लेना होगा। जहां हम खड़े थे , वहां से प्रवेश के लिए कोई मार्ग नहीं था। लाइन हमारे सामने थी, पर उसकी उत्पत्ति कहाँ से थी इसका हमें पता नहीं चल पा रहा था। भाषा की समस्या तो थी ही, तथाकथित गाइड न तो ठीक से हिन्दी बोल पा रहा था और न ढंग की अंगरेजी ! अंततः हमने टिकट ले ही लिया। अब हमें एक बैरीकेड खोलकर एक अन्य लाइन का सीधा रास्ता दे दिया गया। दर असल यह विशेष लाइन थी जो या तो पेड थी या फिर वीआइपी॰। अब तो हम क्षण भर के अंदर मीनाक्षी देवी की प्रतिमा के सामने थे।

सामान्यतः कोई भी पंद्रह रुपये की व्यवस्था पर प्रायः खुश होता। दर्शन कितनी जल्दी मिल गए! पर मेरी भी कुछ मानसिक समस्याएं हैं। पता नहीं आज तक ईश्वर के दरबार में यह वीआइपीपना मुझे रास नहीं आया। मैं सोचता ही रह गया कि इस तरह की विशेष सुविधा का लाभ हम कितनी जगहों पर लेते रहेंगे ? पैसे के बल पर और पैसे के लोभ में इस तरह का व्यापार हम कहाँ- कहाँ करते रहेंगे ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जहां हम आस्था , विश्वास और श्रद्धा का भाव लेकर जाएं , वहाँ तो कम से कम अपने को एक सामान्य मनुष्य मान लें ! क्या ऐसी व्यवस्थाएं नितान्त जरूरी हैं ?क्या मंदिर प्रबन्धन एक समानता का नियम नहीं बना सकता ? क्या आर्थिक एवं सामाजिक महत्त्व का बिगुल हम यहाँ भी बजाते रहेंगे ? दर्शनोपरान्त मुझे मालूम हुआ था कि मेरे सामने जो लाइन थी वह सामान्य अर्थात निश्शुल्क लाइन थी और वह पीछे से आ रही थी। बस, जरा देर लगती है, और मैं विशेष लाइन में लगने के अपराधबोध से जल्दी मुक्त नहीं हो पाया!

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