सत्यमेव जयते का सच
Posted by Isht Deo Sankrityaayan on September 23, 2007
इष्ट देव सांकृत्यायन
इससे ज्यादा बेशर्मी की बात और क्या हो सकती है कि ‘सत्यमेव जयते’ का उद्घोष करने और देश भर को न्याय देने का दंभ भरने वाली न्यायपालिका खुद ही अन्याय का गढ़ बन जाए. वैसे यह कोई नई बात नहीं है. हिंदी साहित्य और फिल्मों में यह बात बार-बार कही गई है. श्रीलाल शुक्ल की अमर कृति ‘राग दरबारी’ का लंगड़ और ‘अंधा कानून’ जैसी फिल्में घुमा-फिरा कर यही बात कहना चाहती रहीं हैं। न्याय की मूर्तियों को उस अपराधी साबित करने वाला कोई सबूत जंचता ही नहीं जो उनकी कृपा खरीद लेता है. न्याय खरीदा-बेचा जाता है, इसका इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि अकेले जस्टिस सब्बरवाल ही नहीं कई और जस्टिस अरबों की सम्पत्ति के मालिक हैं.
इसी सिलसिले में हाल ही में समकालीन जनमत पर आए दिलीप मंडल के पोस्ट पर कहीं और किसी सज्जन ने यह सवाल उठाया है कि पत्रकार कौन से दूध के धुले हैं. लेकिन मित्र सवाल किसी पेशे, पेशेवर या व्यक्ति के दूध या शराब के धुले होने का नहीं है. सवाल कर्म और कुकर्म का है. पत्रकार भी ऐसे हैं जो रिश्वत लेते हैं, ब्लैकमेलिंग करते हैं और दलाली करते हैं. यह देश की व्यवस्था का दोष है कि और पेशों की तरह पत्रकारिता में भी ईमानदार और प्रतिभाशाली लोग कई बार दलालों और भ्रष्ट पत्रकारों की ही चाटुकारिता के लिए मजबूर होते हैं. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम उन्हें छोड़ने की वकालत कर रहे हैं. दुर्भाग्य की बात यह है कि इस पेशे में भी आम तौर पर सारी सुविधाएं अधिकतर भ्रष्ट लोगों के ही पास हैं और योग्य पत्रकार जैसे-तैसे जीवनयापन के अलावा कुछ और कर पाने की हैसियत में नहीं हैं. पत्रकार आए दिन अपने बीच के ऐसे लोगों के खिलाफ आवाज भी उठाते हैं. ये अलग बात है कि वह नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित होती है.
अगर ऐसे किसी पत्रकार या प्रकाशन के खिलाफ फैसला हुआ होता तो किसी को कोई गुरेज नहीं होती. उमा खुराना के मसले पर टीवी चैनल और सम्बंधित पत्रकार के खिलाफ हुआ फैसला इसका ज्वलंत उदाहरण है. मीडिया की बढती दुष्प्रवृत्तियों पर सबसे ज्यादा मुखर पत्रकार ही हैं. कोई भी समाजविरोधी कार्य करने या उसमें सहयोग देने वाले पत्रकारों के खिलाफ कोई भी फैसला कहीँ से भी आए, मीडिया से जुडे अधिकतर लोग उसका स्वागत करते हैं और आगे भी करते रहेंगे. लेकिन यह क्या बात हुई कि आप किसी को उसकी ईमानदारी की सजा दें और ऊपर से यह तर्क कि ‘जस्टिस इन चीजों से ऊपर होता है’. ऐसा तो राजतंत्र में भी नहीं होता साहब और यह लोकतंत्र है.
सब्बरवाल सही हैं या गलत, यह बात सबूतों और उनके परीक्षण के आधार पर तय की जानी चाहिए. किसी के जस्टिस या पत्रकार होने के आधार पर नहीं. ऐसे समय में जबकि देश में लोकपाल और सूचना के अधिकार की बात की जा रही हो, तब अगर इस तरह की बात की होने का ही नहीं, समाजविरोधी होने जैसी बात है. इसके शमित मुखर्जी और अरुंधती राय के मामले में हम देख चुके हैं. इसलिए हमें उम्मीद है कि हाईकोर्ट ने चाहे जो किया सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर वास्तविक नजरिया अपनाएगी. लेकिन अगर तब जस्टिस सब्बरवाल गलत पाए जाते हैं तो वह सिर्फ पत्रकारों के नहीं, देश और जनता के दोषी होंगे.
Udan Tashtari said
अन्याय के विरुद्ध अवश्य आवाज उठना चाहिये. अच्छा आलेख.
अनिल रघुराज said
सबरवाल जैसे जज लोग चिंता न करें। हमारे आप जैसे लोगों की सोच के दबाव में केंद्र सरकार खुद इस पर कानून बनाने जा रही है। लेकिन जिस तरह सारे पत्रकार भ्रष्ट नहीं होते वैसे ही न्यायपालिका में भी मार्कंडे काटजू टाइम लोग हैं जो कभी रेडिकल रहे थे और अब भी अक्सर रेडिकल फैसले सुना देते हैं। जुडिशियल एक्टिविज्म का आज अपना अलग रोल है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
ALOK PURANIK said
नोट मेव जयते
vinaya ojha 'Snehil' said
are bhaee aap abhee bhram me rahte hain ki aap loktantra ke adheen hain.kaisa loktnatra jahan n to sheksha kee ekrupta hai n to nyayik niyuktiyon kee ekrupta hai aur n to vidhaika kee yogyata nirdharit hai n to charitra kee guarantee hai.
Isht Deo Sankrityaayan said
भाई अनिल जी आपकी बात बिल्कुल सही है और हम इसी उम्मीद में मसले को आगे बढ़ा भी रहे हैं. वैसे तो सरासर अन्याय का यह प्रकरण सुप्रीम कोर्ट पहुंच कर ही धराशाई हो जाएगा, लेकिन न्यायपालिका में हिटलरशाही की यह प्रवृत्ति हावी न होने पाए, इसके लिए जरूरी है कि हम सब अपने-अपने मंच से इसके खिलाफ आवाज बुलंद करें. भाई आलोक जी आपकी बात बिल्कुल सही है और हमारी लड़ाई इसीलिए है. क्या ही बेहतर हो अगर सत्यमेव जयते पर नोटमेव जयते को लेकर आप अपनी शैली में कुछ लिखें. हम इंतज़ार करेंगे. और विनय भाईहताशा की बात आपके उँगलियों से निकले तो अच्छा नहीं लगता. दुनिया में अभी समस्या बनी ही नहीं जिसका कोई समाधान न हो.
masijeevi said
भ्ले ही हमारा आपका प्रतिरोध इस मुआमले को कहीं भी न पहुँचा सके तब भी यह प्रतिरोध आवश्यक है।लेख के लिए शुक्रिया
Isht Deo Sankrityaayan said
धन्यवाद मसिजीवी भाई!भले हमारे विरोध का नतीजा कुछ न हो, पर उसे दर्ज तो कराया ही जाना चाहिए.
संजय तिवारी said
इसान के द्वारा बनाई गयी कोई भी व्यवस्था इंसान की आलोचनाओं के दायरे के बाहर नहीं जा सकती. न्यायपालिका भी उसमें शामिल है.
Mahesh Parimal said
इश्ट देव जी,बहुत बढ़िया लिखा आपने। सच तो यह है कि आज ईमानदारी भी बेइमानी के धन से खरीदी जा रही है। बुरे लोगों को भी ईमानदारी आदमी चाहिए। पर ईमानदारी वहाँ भी टिक नहीं पाती। कानून क्या कर लेगा, यदि लोगों को कानून का इतना ही खौफ होता, तो अपराध ही क्यों होते। इस देष में रक्षा उन्हीं की होती है, जो कानून अपने हाथ में लेते हैं। आप कुद नहीं कर सकते। आप यह ऑंकड़े देख लीजिए कि कितने पत्रकार डयूटी के दौरान मारे गए और कितने मंत्री, विधायक, नेता और न्यायाधीष हमेषा की तरह सुरक्षित रहे। आज गरीबी मुद्दा नहीं है, मुद्दा है सौंदर्य। जब इस तरह से जीवन मूल्य बदलते हैं, तो सब-कुछ बदल सकता है। आवष्यकता है जीवन मूल्यों को समझने की।डॉ. महेष परिमल
Mahesh Parimal said
इश्ट देव जी,बहुत बढ़िया लिखा आपने। सच तो यह है कि आज ईमानदारी भी बेइमानी के धन से खरीदी जा रही है। बुरे लोगों को भी ईमानदारी आदमी चाहिए। पर ईमानदारी वहाँ भी टिक नहीं पाती। कानून क्या कर लेगा, यदि लोगों को कानून का इतना ही खौफ होता, तो अपराध ही क्यों होते। इस देष में रक्षा उन्हीं की होती है, जो कानून अपने हाथ में लेते हैं। आप कुद नहीं कर सकते। आप यह ऑंकड़े देख लीजिए कि कितने पत्रकार डयूटी के दौरान मारे गए और कितने मंत्री, विधायक, नेता और न्यायाधीष हमेषा की तरह सुरक्षित रहे। आज गरीबी मुद्दा नहीं है, मुद्दा है सौंदर्य। जब इस तरह से जीवन मूल्य बदलते हैं, तो सब-कुछ बदल सकता है। आवष्यकता है जीवन मूल्यों को समझने की।डॉ. महेष परिमल