Aharbinger's Weblog

Just another WordPress.com weblog

अथातो जूता जिज्ञासा-19

Posted by Isht Deo Sankrityaayan on February 22, 2009

हाँ तो हम बात कर रहे थे, विदेशों में जूते के प्रताप का. तो सच यह है कि विदेशों में भी जूते का प्रताप भारतवर्ष से कुछ कम नहीं रहा है. बल्कि मुझे तो ऐसा लगता है कि कई जगह भारत से भी ज़्यादा प्रताप रहा है जूते का. इसी क्रम में भाई आलोक नन्दन ने पिछले दिनों जिक्र किया था फ्रांस की एक रानी मेरी अंतोनिएत का. यह जो रानी साहिबा थीं, ये पैदा तो हुई थीं ऑस्ट्रिया में सन 1755 में, लेकिन बाद में फ्रांस पहुंच गईं और वहीं की रानी हुईं. जैसा कि भाई आलोक जी ने बताया है ये अपने दरबारियों पर जूते चलाया करती थीं.

बेशक यह जानकर आपको दुख हो सकता है और मुझे भी पहली बार तो यह लगा कि यह कैसी क्रूर किस्म की रानी रही होंगी. लेकिन साहब उनकी क्रूरता की कहानियों का मामला दीगर मान लिया जाए तो उनकी जूते चलाने की आदत कुछ बुरी नहीं लगती रही होगी. ख़ास तौर से उनके दरबारियों को. केवल इसलिए नहीं कि वे दरबारी थे और दरबारियों को आम तौर पर जूते खाने की आदत होती ही है. अव्वल तो किसी के सही अर्थों में दरबारी होने की यह प्राथमिक टाइप की योग्यता है कि वह जूते खाने में न सिर्फ़ माहिर हो, बल्कि इसमें उसे आनन्द भी आता हो. जूते खाकर वह आह-ऊह न करे, बल्कि कहे कि वाह रानी साहिबा! क्या जूते चलाए आपने! मज़ा आ गया ये जूते खाकर तो. दरबारी होने की यह शर्त आज तक चली आ रही है, इस भयावह लोकतंत्र तक में. लिहाजा इस नाते तो उनके दुखी होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता और ख़ुशी की बात यह है कि वे जूते कोई  मामूली जूते नहीं होते थे, हमारे-आपके या ज्ञान भैया के बार-बार सोल चढे हुए जूतों जैसे.

रानी साहिबा मैरी अंतोनिएत के जूते हर तरह से ख़ास हुआ करते थे. एक तो इसीलिए कि वे रानी साहिबा के जूते होते थे और दूसरे इसलिए भी कि उनमें हीरे-जवाहरात जडे हुए होते थे. 17वीं शताब्दी की बात तो छोडिए, आज की इस हाइटेक इक्कीसवीं सदी में भी अगर हमको-आपको भी ऐसे जूते मिलें तो दरबारी न होने के बावजूद हम उन्हें पाना अपना सौभाग्य ही समझेंगे. भला बताइए, इस महंगाई के दौर में जब रोटी-दाल का जुगाड ही इतना मुश्किल हो, तब अगर कोई हीरे जवाहरात दे रहा हो, तो जूते की थोडी सी चोट के बदले उसे हासिल कर लेना भला किसे बुरा लगेगा! मुझे पक्का विश्वास है कि उन जूतों के लिए रानी साहिबा के दरबारियों के बीच तो ग़ज़ब की होड ही मच जाती रही होगी और सभी चाहते रहे होंगे कि काश! आज मेरी बारी हो. जिसे वे जूते मिल जाते रहे होंगे उसकी ख़ुशी का तो कोई पारावार ही नहीं होता रहा होगा और ठीक इसी तरह जो तमाम कोशिशों के बावजूद जूते नहीं पाते रहे होंगे उन बेचारों की ईर्ष्या का भी.

यक़ीन न हो तो आप आज के सन्दर्भ में इसे भारतीय लोकतत्र की कई महारानियों के व्यवहार में देख सकते हैं. दक्षिण की एक महारानी के पास तो चप्पलों और जेवरों का इतना बडा भंडार पता चला था कि पूरा इनकम टैक्स महकमा परेशान हो गया उनका हिसाब लगाते-लगाते, पर दरबारी खा-खा कर कभी परेशान नहीं हुए. एक और महारानी उत्तर की हैं, जिनके यहाँ दरबारियों के बैठने के लिए दरी बिछाई जाती है और वह ख़ुद वह सोफे पर बैठ कर जूते चलाती हैं. दरबारी बडी ख़ुशी-ख़ुशी उसे लोकते हैं और मांते हैं कि जूता मिलने का मतलब है विधानसभा और अगर लात भी मिल गया तो समझो लोकसभा का टिकट पक्का. भला यह दुनिया के किस हीरे से कम है. उत्तर की ही एक और महारानी हैं, जिनकी भारत ही नहीं विदेशों में भी तूती बोलती है, उनकी जूतियों के निकट से दर्शन ही दरबारियों की औकात बढा देते हैं. जिसे मिल जाएं, समझो कल्पवृक्ष ही मिल गया. पूरब की एक महारानी हैं. वह जब जूते चलाती हैं तो पब्लिक के हाथ मुश्किल से आया रोजगार का इकलौता साधन तक छिन जाता है, फिर भी पब्लिक उनके जूतों को अपने सिर-आंखों पर स्थान देती है.

महारानी अंतोनिएत के जूतों का क्या मूल्य होता रहा होगा यह तो आलोक जी ने नहीं बताया, पर इतना तो मैं अपने अनुमान से कह सकता हूँ कि उस ज़माने के हिसाब से भी वे जूते बहुत क़ीमती हुआ करते रहे होंगे. अगर उनका ढांचा बिगाड कर भी उनके हीरे-जवाहरात को ही बेचा जाता रहा हो तो भी इतना तो रिटर्न मिल ही जाता रहा होगा कि हमारे जैसे लोगों के लिए एक महीने के राशन की चिंता से मुक्ति मिल जाती रही होगी. अब सोचिए कि एक वो ज़माना था और एक आज का ज़माना.

जूते आज भी 20-20 हज़ार रुपये क़ीमत के तो भारतवर्ष में ही मिल जाते हैं. लेकिन इन क़ीमती जूतों की उन जूतों से भला क्या तुलना. ये तो वैसी ही बात होगी जैसे सोने के हल की तुलना खेत में चलाए जाने वाले हल या राज सिंहासन पर विराजने वाले खडाऊं की तुलना घुरहू के पव्वे से की जाए. इन जूतों में हीरे-जवाहरात तो कौन कहे, ढंग की पीतल भी नहीं लगी होती. दुकान से निकलने के बाद बाज़ार में अगर हम-आप इन्हें बेचने जाएं तो सौ रुपये भी शायद ही मिल पाएं. ये अलग बात है कि दुकान पर हमको-आपको ये 20 हज़ार में ही मिलेंगे. पर सवाल ये है कि ये आख़िर दुकान पर 20 हज़ार में बिकते क्यों और कैसे हैं. तो भाई इसमें तो कमाल सिर्फ़ और सिर्फ़ ब्रैंडिंग का है. और ब्रैंडिंग वो फितरत है जो आजकल तेल-साबुन से लेकर मीडिया तक की होने लगी है. कुछ अख़बारों में तो स्थिति यहाँ तक पहुंच गई है कि सम्पादकीय विभाग को धकिया कर इसने बैक बेंचर बना दिया है और ख़ुद ड्राइविंग सीट पर काबिज हो गई है. मतलब यह कि उनकी सम्पादकीय नीतियां ही तय करने लगी है. लिहाजा अब अगर आपको टेलीविज़न पर सिर्फ़ चटपटी ख़बरें और अख़बारों में भी बहुत सारी चटपटी ख़बरें मिलने लगी हैं तो उन पर अफ़सोस करने की कोई ज़रूरत नहीं है.

बहरहाल, मैरी अंतोनिएत के प्रसंग से सिर्फ़ इतना ही ज़ाहिर नहीं हुआ कि विदेशों में भी जूता जी का प्रताप ऐतिहासिक सन्दर्भों में महत्वपूर्ण है, बल्कि सच तो यह है कि वहां यह आम आदमी के लिए आज के भारत की तुलना में ज़्यादा उपयोगी भी रहे हैं. कम से कम, आज के लोकतांत्रिक राजाओं के दरबारी तो ख़ुद को आम आदमी ही मानते हैं. मेरा ख़याल है कि उन दिनों भी राजा-रानियों के दरबारी ख़ुद को राजा-रानी साहिबा के सामने आम आदमी ही कहा करते रहे होंगे. मुझे तो ऐसा लगता है कि आजकल भी जो ख़ास लोग ख़ुद को आम जगहों पर आम आदमी के रूप में प्रेज़ेंट करते हैं उसकी यह एक बडी वजह है. ये अलग बात  है कि जिस आम आदमी के नाम पर ही सब कुछ होता है उसे सब कुछ होने का न तो तब कोई फ़ायदा मिल पाया और न आज ही मिल पा रहा है.

(चरैवेति-चरैवेति…)

अथातो जूता जिज्ञासा-17

9 Responses to “अथातो जूता जिज्ञासा-19”

  1. मैरी अंतोनिएत के जूतों और उनके स्वभाव के बारे में जानना बढिया रहा. जूता महान है हर युग में और हर देश में.

  2. वाह क्या चौडे से चल रहा है जूता पुराण प्रवचन ! दक्षिण के निजाम से मदन मोहन मालवीय ने भरे दरबार में फेंके हुए रत्न जटित जूते पाकर कर उसकी नीलामी से प्राप्त धन से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का विस्तार किया ! राजनीति की एक महारानी की जूतियाँ उतार उतार कर एक शख्स आज भी सत्ता में भुत ऊंचे प्रशाशनिक पड़ पर कायम है -यह जूता महात्म्य नहीं तो और क्या है !

  3. इस जूता वृतांत की तमाम किश्तें धीरे=धीरे कर पढ़ गया….अद्‍भुत-ये समस्त वृतांत भी और आपका प्रोफाईल भी…

  4. बहुत सुंदर लगा आप का यह जुता पुराण, दक्षिण की एक महारानी के पास तो चप्पलों और जेवरों का इतना बडा भंडार पता चला था कि पूरा इनकम टैक्स महकमा परेशान हो गया उनका हिसाब लगाते-लगाते, बहुत सुंदर.धन्यवाद

  5. एन्तियोनेत के जमाने में होते तो जूताखावक की नौकरी से काम चल जाता। सुना है वो जूते भी खिलाती थीं और केक भी! वैसे आजके युग में भी अगर फास्ट ट्रैक से प्रगति करनी है तो कुशल जूताखावक बनना चाहिये।

  6. जूते का महात्म्य वाकई अनोखा है… पहनो, दिखाओ, खिलाओ, मरो…. एक वस्तु के इतने गुण…. वास्तव में महान है जूता…

  7. सही में ज्ञान भैया. वैसे भी जूता तो हर नौकरी में खाना पडता है.

  8. अरविन्द जीनई जानकारी के लिए धन्यवाद. जूता शास्त्र के अगले अध्यायों में इसे सम्मानजनक स्थान मिलेगा.

  9. hempandey said

    जूते के बहाने बहुत कुछ कहा है आपने.

Leave a reply to Udan Tashtari Cancel reply